शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

सनातन धर्म



प्रश्न – जो हिन्दूधर्म है वही सनातनधर्म है क्या? क्या निराकार ईश्वर की मूर्ति बनाकर पूजा करना हिन्दूधर्म का अनुकरणीय पथ है ? क्या हिन्दूधर्म में बलिकर्म के लिये बलपूर्वक लाये गये मूक पशु-पक्षियों की हत्या करना फिर प्रसाद रूप में मांस-मदिरा का सेवन करना ईश्वरीय पूजा का शास्त्र सम्मत विधान है? क्या देवी की विशाल मूर्तियाँ बनाकर उनके सम्मुख मद्यपान कर ध्वनिप्रदूषण करते हुये कामुक नृत्य करना हिन्दुओं का धार्मिक अनुष्ठान है ?     



उत्तर – हे वत्स ! भारत में यह जो स्थूल नेत्रों से दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब हिन्दू धर्म है, और जो दृष्टव्य नहीं है, प्रत्युत चेतना के विषयरूप में अनुभवगम्य है वही सनातन धर्म है । दुर्गा देवी के मूर्ति विसर्जन में मद्यपान कर “कामुक नृत्य” करते किशोर-किशोरियों के झुण्ड अपना परिचय हिन्दू धर्मानुयायी कहकर देते हैं किंतु “ब्राउनियन मूवमेंट” नृत्य की वे मुद्रायें हैं जो केवल सनातन ही हो सकती हैं । परमाणु के ऑर्बिट्स में इलेक्ट्रॉन्स का सतत नृत्य सनातन है । शिव का लास्य और रौद्र ताण्डव सनातन है जो डार्क-मैटर और एनर्जी की माया का खेल खेलता है । मूर्ति ... जो दृष्टव्य है ... वह उनके लिए है जिनके लिए सूक्ष्म अकल्पनीय है । मूर्ति का नाम है, सूक्ष्म का कोई नाम नहीं होता । हे वत्स ! जिसका नाम है वह हिन्दू है और जिसका कोई नाम नहीं है वह सनातन है ।

हे प्रिय जिज्ञासु ! सनातनधर्म चराचर जगत का वह आदिधर्म है जो सामान्य है और इस सम्पूर्ण सृष्टि के लिए अपरिहार्य है । उस धर्म के पालन से ही परमाणु के अन्य अवयव अपना संयुक्त परिवार बना सके हैं और हिग्स बोसॉन अन्य सदस्यों को सत्तावान बना सकने में समर्थ हो पाते हैं । सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवयवों में संयोग और वियोग की अद्भुत् क्रियायें सनातनधर्म के प्रभाव से ही सम्भव हैं । कोई भी रासायनिक क्रिया शिव के लास्य नृत्य का ही प्रकट रूप है । यह जो हाइड्रोजन बम है, इसके विस्फोट की व्याख्या शिव के रौद्र नृत्य के बिना सम्भव नहीं ।
प्रिय वत्स ! सनातनधर्म को किसी विशिष्टता में बांधा नहीं जा सकता । नदी के प्रवाह की प्रक्रिया, पुष्पों के खिलने की प्रक्रिया, ऋतुओं का आवागमन, आकाशीय पिण्डों की जीवन गाथा... क्या ये सब किसी नियम का पालन नहीं करते ? यह जो नियम है जिसके अनुपालन में यह सम्पूर्ण लीला घटित होती है ... वही तो सनातन है । प्राणियों के शरीर की अद्भुत् संरचना और कोशिकाओं से लेकर तंत्रांगों तक की फ़िज़ियोलॉजी में जिस अनुशासन और सहकारिता के दर्शन होते हैं वही तो है सनातन धर्म ।
हे वत्स ! जो साकार है वह निराकार का ही तो स्वरूप है । आपने मैटर, डार्क मैटर और एनर्जी के पारस्परिक सम्बन्धों और उनके रूपांतरण को समझने का प्रयास किया है । आपने अपनी स्थूल प्रयोगशालाओं में स्थूल माध्यमों से अपनी निराकार हाइपोथीसिस को साकार सिद्ध करने का प्रयास किया है । स्थूल और सूक्ष्म, साकार और निराकार ...वे स्थितियाँ हैं जिनसे होता हुआ कोई वैज्ञानिक अपनी ज्ञानयात्रा के पथ पर आगे बढ़ता है । वैज्ञानिकों को इन दोनों स्थितियों से सामना करना ही होगा । किंतु जो वैज्ञानिक नहीं हैं, सामान्य व्यक्ति हैं वे भी साकार और निराकार का सामना अपने विवेक के अनुसार करते हुये ज्ञानयात्रा के पथ पर आगे बढ़ते जा रहे हैं । कोई आगे है, कोई पीछे है । कोई साकार में उलझा है तो कोई निराकार की ओर बढ़ चला है । कोई एनर्जी में खोया हुआ है तो कोई डार्क मैटर के पीछे पड़ा हुआ है, तो हिग्स बोसॉन के पीछे पड़ने वाले भी कम नहीं हैं । जो साकार मूर्ति पर ही रुक गया है ...उसे अभी बहुत लम्बी यात्रा करनी होगी । मूर्ति से आगे बढ़ना होगा, आगे बढ़ने के लिए मूर्ति को छोड़ना होगा, मूर्ति को छोड़ने के लिए हिग्स बोसॉन को भी छोड़ना होगा ...उससे भी आगे ...निराकार की यात्रा करनी होगी । यह यात्रा सनातन है, यह यात्रा वह धर्म है जिसके बिना किसी की कोई गति नहीं । हे पथिक ! चन्द्रमा को समझने के लिए उसके दूसरे पक्ष को भी देखना होगा । शब्दों की माया अनंत है, शब्द जब ध्वनि में अनूदित होते हैं तो अद्भुत् प्रभाव उत्पन्न करते हैं । यह प्रभाव ही सनातन धर्म है ।

तुम क्या जानो



तुम नहीं समझे “आज़ादी”
मैंने समझा है उसे
इसीलिये जी पाती हूँ
जी भर “आज़ादी” ।
तुम ठहरे “आज़ादी” के शत्रु
इसीलिये करते रहते हो
मेरी बारबार हत्या ।
तुम ईर्ष्यालु हो ...
और मूर्ख भी
दुष्ट वैदिक ऋषियों की बनायी
दास परम्परा में जीने के अभ्यस्त
तुम क्या जानो
“आज़ादी” का अर्थ !
तुम क्या जानो
विविधतापूर्ण अनुभूतियाँ
स्वच्छन्द सहवास की
तुम क्या जानो
आनन्द मदिरापान का
या मस्ती कोकीन की  
और क्या जानो
वह चरमानंद
जो मिलता है
अपने पूर्वजों की छीछालेदर करने में
देश के हजार टुकड़े करने का
संकल्प लेने में
और करने में नृत्य
बोन-फ़ायर की हल्की रोशनी में
भारत के शत्रुओं के साथ ।
तुम शत्रु हो
मेरी स्वच्छन्दता के
तुम शत्रु हो
उस आज़ादी के
जो दिलायी है मुझे
मेरे मार्क्स बाबा ने ।
बलात्कारी वैदिक ऋषियों के दास !
मैं यूँ ही करती रहूँगी तुम्हें बदनाम
लगा-लगा कर ऐसे आरोप
जो होंगे दूर ... बहुत दूर
तुम्हारी कल्पना से भी ।     

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

शिक्षा का औचित्य




 
भारत में गुरुकुल पद्धति के अवसान के पश्चात् से शिक्षा का सम्यक स्वरूप समाप्त हो गया है जिससे शिक्षित लोगों के सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र में आये पतन का स्पष्ट प्रभाव चारों ओर देखने को मिल रहा है । उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की आर्थिक और नैतिक अपराधों में लिप्तता एक चिंता का विषय है जिसने शिक्षा के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । गुरुकुलों के अवसान के पश्चात् तत्कालीन विदेशी सत्ता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये स्वार्थमूलक होने से पश्चिमी देश-काल से प्रभावित जिन शालाओं और विद्यालयों का प्रचलन भारत में हुआ उनका उद्देश्य भारतीय समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं था । स्वाधीनता के पश्चात् भी हम उस नवीन किंतु दोषपूर्ण व्यवस्था का त्याग नहीं कर सके जिसका परिणाम यह हुआ कि आज शिक्षा के क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है । साम्यवादी चीन शिक्षा के क्षेत्र में भी हमसे बहुत आगे निकल चुका है किंतु यह रुदन अब और कब तक करते रहेंगे हम ! हमें कुछ समाधानात्मक क्रांतिकारी कदम उठाने ही होंगे । 
प्रथम तो यह कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए हमें देश-काल मूलक सामूहिक प्रयास करने होंगे । शिक्षकों की योग्यता, दक्षता और समर्पण आज के भारत की प्रबल समस्या है । प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता स्नातक एवं विज्ञान विषयों के साथ इंटरमीडिएट होनी चाहिये साथ ही उन्हें बालमनोविज्ञान का कम से कम एक वर्ष का एक विशेष पाठ्यक्रम करवाया जाना चाहिए जिससे बच्चों की नींव सम्यक एवं सुदृढ़ हो सके । शिक्षा का माध्यम प्रांतीय भाषायें हों किंतु राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक बहु प्रचलित भरतीय भाषा को राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा बनाया जाना चाहिये । वहीं देशी भाषाओं की समृद्धि के लिए संस्कृत की अनिवार्यता की जानी चाहिए । छात्राओं का यौनशोषण करने वाले शिक्षकों के लिए मृत्युदण्ड की अनिवार्य व्यवस्था हो । हर शिक्षक को किसी भी प्रकार के व्यसन से मुक्त रहने की अनिवार्यता होनी ही चाहिये अन्यथा उसकी सेवायें समाप्त कर दी जानी चाहिए । शिक्षा को व्यवसाय से हटाकर यज्ञ की तरह प्रतिष्ठित करना होगा ।
शिक्षा और व्यावहारिक जीवन के बीच एक गहरी खाई बन गयी है जिसके कारण शिक्षा पूर्ण करने के बाद युवक-युवतियों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का अभाव होता है । यह एक ऐसा नकारात्मक पक्ष है जिसने शिक्षा के महत्व को न्यून कर दिया है । हमें शिक्षा को व्यावहारिक बनाना होगा जिससे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा की उपादेयता प्रकाशित हो सके । वर्तमान भारत की आवश्यकता अपनी शिक्षा को मूल्यपरक, नीतिपरक, स्वाभिमानपरक, आत्मनिर्भरता परक, राष्ट्रपरक और पर्यावरणपरक बनाने की है । आज की शिक्षा केवल सूचनापरक हो कर रह गयी है, शिक्षा को व्यावहारपरक बनाने के लिए उसमें जीवन से जुड़े नैतिक एवं वैज्ञानिक पक्षों का भी व्यावहारिक समावेश करना होगा । इसके लिए शिक्षा नीति, पाठ्यक्रम और शिक्षा के माध्यमों में आमूल परिवर्तन करने होंगे जो विद्यार्थियों को भारत राष्ट्र, भारतीय जीवनमूल्यों, आदर्शों और भारतीय समाज की आवश्यकताओं को समझने में सहायक हों। पाठ्यक्रम का प्रभाव मानवीय और वैज्ञानिक होना चाहिये जिससे शिक्षा और जीवन के व्यावहारिक पक्ष के मध्य की गहरी खाई को पाटा जा सके । पाठ्यक्रमों में विज्ञान और आध्यात्मिक तत्वों का समन्वय किया जाना चाहिये ताकि विज्ञान का लोकहित में अधिक से अधिक उपयोग करने की समझ विकसित हो सके । योग्यता की वर्तमान मूल्यांकन पद्धति दोषपूर्ण एवं भ्रष्ट है, मूल्यांकन के लिए अध्ययनकाल में सतत मूल्यांकन की पद्धति विकसित की जानी चाहिए जो विद्यार्थी की योग्यता एवं व्यक्तित्व का सर्वांगीण मूल्यांकन कर सके । वर्धा मेडिकल कॉलेज की तरह श्रम एवं लोक व्यावहारिक की शिक्षा एवं इज़्रेल की तरह सैन्य शिक्षा हर विद्यार्थी के लिए अनिवार्य की जानी चाहिए ।
विद्यालयों में प्रवेश के लिए छात्रों की पात्रता एवं उपयुक्तता के निर्धारण हेतु ऐसे नए मूल्य निर्धारित करने होंगे जिनमें प्राकृतिक न्याय के साथ-साथ राष्ट्रीय और सामाजिक मूल्यों का भी अनिवार्य समावेश हो और किसी भी शिक्षार्थी को कुंठित न होना पड़े । शिक्षा के क्षेत्र से आरक्षण को पूरी तरह समाप्त किया जाना चाहिए । यह एक अवैज्ञानिक, अमानवीय और अनैतिक व्यवस्था है जो किसी समाज विशेष के उत्थान के स्थान पर उसका पतन ही अधिक करेगी । निर्धनों की शिक्षा पूरी तरह शुल्कमुक्त एवं पूर्ण सुविधायुक्त हो । शिक्षा के उन्नयन के नाम पर किए जाने वाले प्रयोगों के औचित्य पर गम्भीर मंथन हो, आवश्यक होने पर ही प्रयोग किए जायं और उनकी सीमा एवं एक निश्चित समयांतराल पर समीक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिये ।
शासकीय विद्यालयों की विभिन्न श्रेणियाँ और उनके स्तर समाप्त किए जाने चाहिए । शिक्षा की निजी संस्थाएं व्यावसायिक हो गयी हैं और शिक्षा के मौलिक तत्वों की हत्या कर दी गयी है । शिक्षा को भ्रष्टाचारमुक्त करना भारतीय समाज और उसके विकास के लिए पहली आवश्यकता के रूप में लक्षित होना चाहिये । देश में शिक्षा की एक ही प्रणाली और एक समान स्तर के लिए केवल शासकीय संस्थाएं ही शिक्षा के लिए मान्य हों । देश का हर विद्यालय आदर्श विद्यालय होना ही चाहिए, आख़िर शिक्षा के क्षेत्र में आदर्श से निम्न किसी भी स्तर की बात सोची भी कैसी जा सकती है ! 


शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

आरक्षण से प्रशस्त होगा राजतंत्र का पथ...



दुनिया के हर समाज में विसंगतियाँ थीं, आज भी हैं ... और आगे भी रहेंगी ।
पहले तो मानवीय मूल्यों के पतन एवं स्वार्थपरता ने और फिर शताब्दियों की पराधीनता ने भारत में एक ऐसे समाज को जन्म दिया जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच न जाने कितनी दीवारें खड़ी होकर भारतीय संस्कृति को धता बताया करती थीं । एक-दूसरे के प्रति घृणा और कटुता से भरे दो शब्द, “ब्राह्मणऔर दलितचर्चित होने लगे । निश्चित् ही इस विभेद को उत्पन्न होने में कई सदियों का समय लगा था । कुछ व्यक्तिगत अहंकार और कुछ राजनीतिक परिस्थितियों ने समाज में दो ऐसे वर्गों को उत्पन्न किया जिनमें पारस्परिक मानवीय सम्बन्ध पूरी तरह शून्य हो गये । भारतीय समाज के लिये ये दिन पतन की पराकाष्ठा के दिन हुआ करते थे ।    
वर्गभेद और सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने का भारत में एक प्रयास किया गया, यह एक अच्छी बात थी, किंतु कुछ चतुर लोगों ने इस अच्छे उद्देश्य को एक चक्रव्यूह में फांस दिया । भारत की इन घृणास्पद गलियों में घूमने से पहले थोड़ी देर के लिए हम आपको रूस लेकर चलना चाहते हैं । उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरकाल रूसियों के लिये अच्छा नहीं था, ज़ार के शासन में अत्याचार अपनी चरम सीमा पर था । सामाजिक विसंगतियों और अन्याय को समाप्त करने के लिए रूस में बोल्शेविक क्रांति हुयी और उन्नीस सौ अट्ठारह में रूस एक साम्यवादी देश बन गया । यह माना जाने लगा कि अब इस नयी व्यवस्था से समाजवाद आयेगा, अन्याय समाप्त हो जायेगा मालिक और नौकर का वर्गभेद मिट जायेगा... किंतु यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ सोवियत रूस उन्नीस सौ इक्यानवे में टूट गया, टूटकर पन्द्रह टुकड़ों में बिखर गया । क्यों बिखर गया ? क्या रूसियों को साम्यवादी समाजवाद रास नहीं आया ? क्या वे पूँजीवाद को श्रेष्ठ मानने लगे थे ? क्या उन्हें सामाजिक अन्याय और वर्गभेद मिटाने के प्रयास अच्छे नहीं लगे ? क्या वे फिर से अपनी पुरानी व्यवस्था में लौट जाना चाहते थे....... ?  

चलिये, हम अपनी गन्दी गलियों में वापस लौट चलते हैं । ...तो स्वाधीनता आन्दोलनों के ज़माने से ही भारत में भी एक नयी व्यवस्था पर चिंतन प्रारम्भ हुआ । यह आरक्षण था निर्बल को सबल बनाने के लिए । एक व्यूह रचना हुयी, उसके समानांतर एक चक्रव्यूह रचना भी हुयी और इस तरह जो सबल हैं उन्हें निर्बल बना देने के मूल्य पर आरक्षण की यात्रा प्रारम्भ हुयी ।                                                                                                     
आरक्षण ने जातियों को समाप्त नहीं किया,उन्हें और भी सुदृढ़ कवच पहना दिया । जनता को भुलावे में रखने के लिए कुछ जातिसूचक संज्ञाओं को अपराध घोषित कर दिया गया तो कुछ जातिसूचक संज्ञाओं को जी भर अपमानित करने के अधिकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताकी आड़ में प्रोत्साहित किया जाने लगा । विगत सात दशकों में भारत के समाज ने अनुभव किया कि शासकीय आरक्षणसमाज को बांटता है, सामाजिक और जातिगत विद्वेष में वृद्धि करता है, राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक माध्यम बनता है, राई को पर्वत और पर्वत को राई करता है, अकर्मण्यता को प्रोत्साहित करता है, दक्षता की उपेक्षा करता है, अपात्र को सुपात्र और सुपात्र को अपात्र निर्णीत कर समाज में कुंठा एवं हीनभावना उत्पन्न करता है ।
नदी पर सेतु का निर्माण तो अच्छा है किंतु बांध का निर्माण ! तात्कालिक लाभ के लिये हम सबने नदियों पर बाँध बनाने की संस्कृति को अपसंस्कृति में बदल दिया । हम इस सिद्धांत की उपेक्षा करते रहे कि जल में यदि प्रवाह है तो वह अपना मार्ग बना लेगा । इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की प्रतिभाओं ने विदेशों की ओर पलायन करना प्रारम्भ कर दिया । अमेरिकी और योरोपीय देशों ने भारत की प्रतिभाओं का युक्तियुक्त सदुपयोग किया और प्रगतिपथ पर आगे बढ़ चले । इधर भारत में स्वयं को दीन-हीन-मूर्ख-पिछड़ा-विपन्न-दरिद्र-शोषित और दबा कुचला घोषित किये जाने की एक प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गयी । आरक्षण के लिये हिंसक आन्दोलन होने लगे, हम अपने ही देश की सम्पत्ति को नष्ट करने में लग गये । भारतीय समाज ने स्वयं को उन्नत बनाने की अपेक्षा अवनत बनाना कहीं अधिक श्रेष्ठ समझा । ठीक है, इस बीच हम अंतरिक्ष अनुसन्धान में आगे बढ़ते रहे किंतु कम्प्यूटर के माउज़ के लिए तो चीन पर आश्रित हो गये न !

जो चल नहीं सकते थे उन्हें दौड़ने के लिये बैसाखियाँ दी गयीं । जो दौड़ सकते थे उन्हें चलने के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया । अंधे और लंगड़े के बीच शत्रुता उत्पन्न कर दी गयी, दोनों की मेला घूमने की चाहत दम तोड़ गयी, दो में से कोई भी मेल नहीं जा सका... और अब उनमें से कोई भी... कभी मेला नहीं जा सकेगा । एक आश्वासन निरंतर दिया जा रहा है कि वे दोनों अंतरिक्ष की यात्रा पर अवश्य जायेंगे । अब हमें अन्धे और लंगड़े की अंतरिक्ष यात्रा का विश्लेषण करना होगा ।

जब कोई सरकारी विभाग अपनी तंत्रीय दुर्बलताओं एवं अक्षमताओं के कारण अपने लिये निर्धारित सरकारी कार्य सम्पन्न करने में असफल हो जाता है तो किसी स्वयंसेवी संस्था को एक श्रेष्ठ और सक्षम विकल्प मानकर उसी कार्य के लिए आमंत्रित किया जाता है । कुछ उदाहरण देखिये
1-     शिक्षा के क्षेत्र में शासकीय तंत्रों की असफलता के बाद निजी तंत्रों को फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ ।
2-     चिकित्सा के क्षेत्र में भी यही कहानी दोहरायी गयी ।
3-     औद्योगिक क्षेत्रों में शासकीय तंत्रों के घाटे में चलने के किस्से कौन नहीं जानता ।
4-     रेल के अतिरिक्त लगभग सारा परिवहन तंत्र निजी हाथों में चला गया है और अब कुछ रेलवे स्टेशंस भी निजी उद्योगपतियों को दिये जाने की तैयारी हो गयी है ।

भारत में आरक्षण का भविष्य क्या है ?
सीधी सी बात है, एक दिन राजतंत्र की स्थापना के साथ आरक्षण समाप्त कर दिये जाने की घोषणा कर दी जायेगी । यह भविष्यवाणी आपको चौंका सकती है किंतु आगम यही है । हमें आरक्षण के चक्रव्यूह का विश्लेषण करना होगा ।
1-     आरक्षण का प्रथम् व्यूह एक वर्ग की प्रतिभाओं को आगे नहीं जाने देता जिससे वे निजी क्षेत्रों के साथ-साथ अमेरिकी और योरोपीय देशों की ओर पलायन करते हैं । इसका परिणाम यह हुआ है कि अमेरिकी और योरोपीय देश भारतीय प्रतिभाओं का उपयोग अपने विकास के लिए कर पा रहे हैं, वहीं भारतीय पूँजीपति और सार्वजनिक उपक्रमों के निजी क्षेत्रों ने भी इन प्रतिभाओं के लिये अपने द्वार खोल दिये हैं ।
2-     आरक्षण का द्वितीय व्यूह एक वर्ग के अ-प्रतिभावान लोगों का शासन के तंत्रों और सार्वजनिक उपक्रमों में स्वागत करता है, उनके लिये पलक पाँवड़े बिछाये तैयार रहता है जिसका तात्कालिक प्रभाव व्यवस्था, कुशलता और उत्पादन को गुणवत्ताविहीन करने के रूप में फलित हो रहा है ।
3-     आरक्षण का तृतीय व्यूह अनारक्षित वर्ग को तीव्र प्रतिस्पर्धा और तद्जन्य प्रखर दक्षता के लिये प्रेरित कर रहा है जो आगे चलकर दक्ष और अदक्ष के ध्रुवीकरण का कारण बनेगा ।
4-     आरक्षण का चतुर्थ व्यूह एक वर्ग के अदक्ष लोगों को बैसाखियों का प्रायः दास बना रहा है, यह दासता उन्हें गुणात्मक दृष्टि से कभी आगे नहीं बढ़ने देगी ।
5-     आरक्षण का पञ्चम् व्यूह गुणवत्ता का ध्रुवीकरण करने में सफल हुआ है । भारत में शासकीयतंत्र अक्षम, अकुशल और अकर्मण्य व्यवस्था में परिवर्तित होते-होते निरंतर निर्बल होते जा रहे हैं जबकि इसके ठीक विपरीत निजीतंत्र दक्षता, कुशलता और जुझारूपन के साथ प्रबल होते जा रहे हैं... होते जायेंगे । इस तरह भारत में एक और ध्रुवीकरण निरंतर सुदृढ़ होता जा रहा है ।
6-     आरक्षण का षष्ठम् व्यूह जातिगत ध्रुवीकरण को और भी तीव्र कर रहा है जिससे सामाजिक खाइयाँ और भी बढ़ रही हैं ।
7-     आरक्षण का सप्तम् व्यूह राजनीतिक अवसरवादिता को और भी प्रचण्ड कर रहा है जिससे भविष्य में क्रांति की सम्भावनायें प्रबल होती जायेंगी ।
8-     आरक्षण का अष्टम् व्यूह समाज को कई वर्गों में विभक्त कर उसे दुर्बल कर देगा ।
9-     आरक्षण का नवम् व्यूह निजीतंत्रों, पूँजीपतियों और दक्ष लोगों को शासकीयतंत्रों और अदक्ष लोगों के विरुद्ध एक सहज संघर्ष के लिये प्रेरित करेगा जिससे लोकतंत्र समाप्त हो जायेगा और राजतंत्र का पुनरुद्भव होगा ।