सोमवार, 21 अगस्त 2017

राष्ट्र की सीमाओं से परे सीमाबद्ध और क्या...



भोजन, मैथुन, वस्त्र और आवास की आवश्यकता की तीव्रता और इनकी उपलब्धि एवं वंचनाओं की अनुभूतियों की सीमाओं को देखा है किसी ने !

चीखें जब गूँजती हैं तो राष्ट्र की सीमायें उन्हें रोक नहीं पातीं । पीड़ा के सागर में जब ज्वार उठता है तो सूखा तट भी सूखा नहीं रह पाता । 

आकाश की तरह धरती भी असीमित होना चाहती थी पर नहीं हो सकी । राष्ट्र एक विश्व होना चाहता था पर नहीं हो सका । धरती आकाश नहीं हो सकती, राष्ट्र भी विश्व नहीं हो सकता, दोनों की अपनी-अपनी विवशतायें हैं ।

सीमित को असीमित और असीमित को सीमित करने की अदम्य इच्छा ने कई रंगमंच सृजित कर दिये हैं जहाँ असंख्य अंकों वाले नाटक खेले जा रहे हैं । चीनियों ने लाल वस्त्र-विन्यास में और अरब ने हरे वस्त्र-विन्यास में सीमित को असीमित और असीमित को सीमित करने का बीड़ा उठा लिया है ।

मध्य एशिया में बारूद के विषाक्त धुंये के बीच नितम्बोदर नृत्य हो रहा है । नृत्य व्यापक होता जा रहा है, मृत्यु का भी और लास्य का भी । ऐसी ही व्यापकता देहमण्डियों में भी है... पीड़ा के अथाह सागर के बीच डूबता-उतराता लास्य नृत्य ।

देहमण्डियों का पीड़ा सागर महासागरों से भी बड़ा है... राष्ट्रों की सभी सीमाओं से परे... व्यापक ।

कुछ प्राणियों में रागकाम की अदम्य लालसा उन्हें क्रूर युद्ध में झोंक देती है । आनन्द की प्राप्ति के लिये रक्त-संघर्ष का वरण... अद्भुत् है ।

मानव प्रजाति कहीं अधिक चतुर है, रागकामानन्द के लिये उन्होंने कामद्वीप सृजित कर लिये हैं । दिल्ली के कामद्वीप में देशी ही नहीं अन्य महाद्वीपों की भी देहमण्डियाँ सजती हैं... अपने-अपने राष्ट्रों की सीमाओं से परे । यहाँ दुनिया भर के राष्ट्रों का स्वागत है... यहाँ कोई सैन्ययुद्ध नहीं, पारगमन पत्र की आवश्यकता नहीं, प्रवेश मुक्त है... बस मुद्रा भर होनी चाहिये ।   

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