शुक्रवार, 16 जून 2017

संकट में धर्म यानी चिंतन का धर्मसंकट



धर्म एक आचरणीय सिद्धांत है । सिद्धांत यदि वैज्ञानिक है तो वह सार्वकालिक है, उसके संकटग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । किंतु यदि सिद्धांत ही अवैज्ञानिक और त्रुटिपूर्ण हो तो धर्म का संकटग्रस्त होना अवश्यंभावी है ।
शोर है कि क़ाफ़िरों के कारण इस्लामधर्म और मुसलमानों के कारण हिन्दूधर्म ख़तरे में हैं । वास्तव में जो ख़तरे में है वह भीड़ है, धर्म नहीं । धर्म कभी संकटपूर्ण नहीं होता, संकट से मुक्त करता है ।
तब “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ...” का क्या आशय ?
“धर्मस्य ग्लानिः” का अर्थ है धर्म के आचरणीय गुण की उपेक्षा । धर्म की उपेक्षा से धर्म नहीं बल्कि उपेक्षक प्रभावित होता है । संकट धर्म पर नहीं, उपेक्षक पर आता है ।
जब हम धर्म की उपेक्षा करते हैं तो अधार्मिक हो जाते हैं, धर्मावलम्बी नहीं रह जाते । धर्म की उपेक्षा से प्रभावित तो वह व्यक्ति या समुदाय होता है जो अधार्मिक हो जाता है ।
हमारे अधार्मिक आचरण से हमारे साथ-साथ समाज भी प्रभावित होता है और पापकर्मों की वृद्धि होती है । पापाचरण से समाज और राष्ट्र की क्षति होती है ।
कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत सदा उपेक्षणीय नहीं होता । उपेक्षा के बाद भी सिद्धांत का अस्तित्व अक्षुण्ण रहता है । 
गैलीलियो ने कहा कि धरती सूर्य का चक्कर लगाती है । योरोप में उस समय तक आम धारणा थी कि सूर्य धरती का चक्कर लगाता है । गैलीलियो को अपनी अवधारणा और खोज के लिये दण्डित किया गया किंतु इससे धरती ने सूर्य का चक्कर लगाना बन्द नहीं किया । धरती आज भी सूर्य का चक्कर लगाती है ।
एक अन्य अवधारणा के अनुसार धरती न तो गोल है और न सेव के आकार की बल्कि चटाई की तरह चपटी है । इस अवधारणा से धरती के आकार पर आज तक कोई प्रभाव नहीं पड़ा । धरती जैसी थी वैसे ही आज भी है ...वैसी ही आगे भी रहेगी ।
सनातनधर्म के पालक न होंगे तो प्रभावित उसके पालक ही होंगे, सनातनधर्म नहीं । जो सनातन है वह समाप्त कैसे हो सकता है ! जल को पीने वाला कोई नहीं होगा तो उससे जल पर क्या प्रभाव पड़ेगा भला ! प्रभावित होगा वह तृषित् जिसने जल की उपेक्षा की और उसके स्थान पर अपेय का पान किया । मद्य के पान से मद उत्पन्न होगा, प्यास नहीं बुझेगी । प्यास बुझाने के लिये तो जल का ही सेवन करना होगा ।
जल का कोई विकल्प नहीं हो सकता, धर्म का कोई विकल्प नहीं हो सकता । हर पेय जल नहीं हो सकता, हर आचरण धर्म नहीं हो सकता ।
जिसे प्यास बुझानी है उसे जल पीना ही होगा, जिसे सुख की अभिलाषा है उसे धर्म का पालन करना ही होगा । हम या तो धार्मिक होते हैं या फिर अधार्मिक । तीसरी कोई स्थिति सम्भव नहीं है । इसीलिये “धर्मनिरपेक्ष” जैसी कोई अवधारणा नहीं हो सकती । जब हम धर्म की अपेक्षा नहीं करते तो अधर्म स्वतः हमारे आचरण में आ जाता है ।
यदि कोई समाज धार्मिक है तो वह राज्य जिसमें वह समाज रहता है, धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है ?
यदि कोई राज्य धर्मनिरपेक्ष है तो उस राज्य का समाज धार्मिक कैसे हो सकता है ?
समाज धार्मिक है तो राज्य भी धार्मिक होगा । समाज धर्मनिरपेक्ष है तो राज्य भी धर्मनिरपेक्ष होगा । धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता की एक साथ स्थिति कदापि सम्भव नहीं है ।
संविधान के धर्मनिरपेक्ष होने का आशय क्या हो सकता है ? क्या संविधान को धर्म की अपेक्षा नहीं है, या संविधान विभिन्न धर्मावलम्बियों को निरपेक्ष भाव से देखने की घोषणा करता है ? यदि संविधान विभिन्न धर्मावलम्बियों को समान दृष्टि से देखता है तो समान नागरिक संहिता का होना अनिवार्य है । यदि संविधान विभिन्न धर्मावलम्बियों को उनके-उनके धर्मों के अनुसार देखता है तो वह धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता बल्कि धार्मिक आधार पर समाज को विभक्त करता है । तो क्या भारतीय संविधान समाज विभाजक है ?
सुना है कि हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है अर्थात् संविधान ने सभी धर्मों के लिये तदनुरूप व्यवस्थायें कर दी हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि विभिन्न धर्मों में पारस्परिक टकराव की कोई स्थिति नहीं है किंतु तब धार्मिक उपद्रव क्यों होते हैं ? धर्म के आधार पर युद्ध की स्थिति तक कलह, पारस्परिक विद्वेष, दंगे और देश को विभक्त करने के लिये आन्दोलन क्यों होते हैं ? गड़बड़ी कहाँ है ?

क्या विभिन्न धर्मों के धार्मिक सिद्धांतों में विरोध और टकराव है ? यदि ऐसा है तो मनुष्य को ऐसे किसी सिद्धांत की क्या आवश्यकता जो अशांति का कारण हो ?      

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