गुरुवार, 2 मार्च 2017

कहानी नहीं इतिहास



  
नन्हीं याना उसकी आत्मा का बन्धन थी, याना की ममता ने उसे मरने नहीं दिया और इस्लाम ने उसे जीने नहीं दिया । तीन साल की याना को उसकी माँ आनिया की गोद से छीनकर कमरे से बाहर कर देने के बाद घनी दाढ़ी वाले अबू-अली-शम ने अन्दर से दरवाज़े की कुण्डी बन्द कर ली । नन्ही याना ने चीख-चीख कर रोना शुरू कर दिया तो अबू के रहमदिल दोस्त ने जेब से चॉकलेट निकालकर याना को देने का प्रयास किया । वह लगातार रोये जा रही थी, उसने चॉकलेट नहीं ली और बन्द दरवाज़े की ओर बारबार अपनी नन्हीं उंगली से इशारा कर अम्मी-अम्मी रटती रही । ऐसा प्रतिदिन होता था, कभी-कभी तो दिन भर में चार-पाँच बार तक भी । नन्हीं याना यह कभी नहीं समझ सकी कि कुछ लोगों के आते ही उसे कमरे से बाहर क्यों भगा दिया जाता और फिर उनके जाते ही अम्मी उसे भींच कर क्यों बिलख उठती थी । उसे अनजान लोग कभी अच्छे नहीं लगते, वह अम्मी को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती थी । बहुत ज़ल्दी उसने अनजान लोगों के आते ही चिड़चिड़ी हो उठना सीख लिया था । कमरे के बाहर याना का रुदन आनिया के कान में पिघले लोहे सा लगता और वह सुन्न हो जाती । 
आनिया को जिस मकान में रखा गया था वहाँ अल्लाह में गहरा यक़ीन रखने वाले काली, खिचड़ी या फिर सफ़ेद दाढ़ी वाले तीन-चार लोग आया करते, याना को कमरे से बाहर कर दिया जाता और फिर एक-एक कर आनिया के ज़िस्म को नोचा जाता । ईराक़ और सीरिया में अल्लाह के बन्दे अपने प्यारे नबी के हुक़्म का पालन करने के लिए यज़ीदी, शॉबेक, कुर्द और ईसाई स्त्रियों के साथ इसी तरह पेश आते हैं, उनका विश्वास है कि इस तरह वे अल्लाह में ग़ैर-इस्लामिक स्त्रियों का ईमान लाने में क़ामयाब होंगे । वे मानते हैं कि दुनिया भर की स्रियों का इस्लाम में यक़ीन होना बहुत ज़रूरी है और इसके लिए उनके साथ महीनों तक सामूहिक बलात्कार किया जाना जायज़ है । ईराक़ और सीरिया का यह किस्सा कोई हजार-दो हजार साल पुराना नहीं बल्कि ईसवीं सन् दो हजार चौदह का है । यह युग वैज्ञानिक समुदाय में हिग्स बोसॉन के लिए और संवेदनशील लोगों में मध्य एशियायी देशों में इस्लामिक विश्व के युद्ध के लिए चर्चित हो रहा है । ब्रह्माण्ड में नयी धरतियों की तलाश की जा रही है जबकि इस धरती की औरतों को सुकून का एक पल जीने के लिए कहीं कोई कोना नहीं मिल सका । 
मकान की ऊपरी मंज़िल के उस छोटे से कमरे में प्रतिदिन कई बार बलात्कार की दर्दनाक सूली पर चढ़ने-उतरने वाली आनिया का ज़िहादी नर्क में आज तेरहवाँ दिन है । अभी दोपहर नहीं हुयी थी कि तभी छह लोगों ने दरवाज़े पर दस्तक दी । चाबुक और बूट की ठोकरें खा-खा कर आनिया का पूरा ज़िस्म अधपके फोड़े सा हो चुका था ।  उसने घबराते हुये सांकल खोली और चुपचाप जाकर पलंग पर लेट गयी, गोया वह एक मांस का लोथड़ा भर हो जिसकी आत्मा को निचोड़ कर धूप में सूखने के लिए डाल दिया गया हो । मांस के लोथड़े ने पिछले कई दिन से स्नान करना बन्द कर दिया था किंतु उसकी यह युक्ति पूरी तरह बेकार साबित हुयी । और फिर दाढ़ी वालों ने जब उसे स्नान करने के लिए मज़बूर करना शुरू कर दिया तो आयना ने हण्टर खाये बिना ही स्नान करना पुनः प्रारम्भ कर दिया । आज का पहला मर्द महज़ सोलह साल का एक ज़िहादी था किंतु ज़िस्म को बुरी तरह नोचने-खसोटने वाला तीसरे नम्बर का ज़िहादी था एक सफ़ेद दाढ़ी वाला मर्द । हर मर्द की यह ख़ूबी होती है कि वह औरत के सामने आते ही अपने मर्द होने के सारे सबूत पेश करने लगता है, भले ही किसी औरत ने उन सबूतों की कभी कोई मांग न की हो । एक-एक कर सभी मर्द अपनी मर्दानगी के सारे सबूत आनिया के समक्ष पेश करते रहे जिन्हें आनिया की मज़बूर देह के साथ-साथ मज़बूर मन-मस्तिष्क भी पहाड़ सा ढोता रहा । आनिया अब हर पल मरने लगी थी हर पल जीने लगी थी ।
रक्का की मण्डी में उस दिन अधिक चहल-पहल नहीं थी फिर भी कुछ शौक़ीन लोग ख़रीद-फ़रोख़्त में लगे हुये थे । यह एक ज़िस्मानी मण्डी थी जिसमें यज़ीदी स्त्रियों को माल की तरह ख़रीदा-बेचा जा रहा था । तीन-चार घण्टे मण्डी में मटरगश्ती करने के बाद सत्ताइस साल के अबू-अली-शम को एकतालीस साल की आनिया ही अंततः पसन्द आयी । कुछ ही महीने पहले जब इस्लामिक ज़िहादियों ने आनिया को उसके घर से उठाया था तो चीखती आनिया ने अपनी तीन साल की बच्ची को सीने से भींच लिया था । ज़िहादियों ने बच्ची को अलग करने की बहुत कोशिश की पर चाबुक और बूट की ठोकरें खाती आनिया ने बच्ची को नहीं छोड़ा तो नहीं ही छोड़ा । एक ज़िहादी को उस पर रहम आ गयी और वह बच्ची सहित आनिया को ले चलने के लिए राजी हो गया । सात ख़ूंख़ार लोग जो कि अल्लाह के बनाये और प्यारे नबी के बताये रास्ते पर चलने का दावा किया करते थे, आनिया और उसकी बच्ची को घसीटते हुये लेकर चले गये । आनिया के शौहर की ख़ून में लथपथ लाश वहीं पड़ी रह गयी ।
       सीरिया और ईराक़ के इस्लामिक ज़िहादियों को जनाने ज़िस्म की बेहद ज़रूरत हुआ करती है, धरती पर वह माल होती है और ज़न्नत में वह हूर होती है । कोई ज़िहाद शायद ज़नाने ज़िस्म के बिना पूरा नहीं हो पाता । आनिया तो फिर भी एकतालीस साल की है, कई बच्चियाँ तो महज़ नौ साल से चौदह साल के बीच की भी हैं जिन्हें माल की तरह स्तेमाल किये जाने और मण्डी में बेचने का ज़िहादियों को स्वाभाविक इस्लामिक हक़ प्राप्त है ।
एक दिन इस्लामिक ज़िहादियों ने आनिया को बाइस साल के इस्लामिक ज़िहादी अबू सफ़ोउआन से निक़ाह के लिए मज़बूर किया । निक़ाह हुआ तो स्थान बदल गया किंतु ज़िन्दग़ी नहीं बदली । यह शादी मात्र बीस दिन तक चली, इस बीच आनिया के ज़िस्म को इस्लाम के नाम पर भरपूर नोचा-खसोटा गया फिर ज़िस्मानी भूख़ के कम होते ही आनिया और उसकी तीन साल की बच्ची को कुछ दिन इधर-उधर रखने के बाद दहूक से रक्का ले जाया गया जहाँ उसे सत्ताइस साल के ज़िहादी अबू अली शम को बेच दिया गया ।
पन्द्रह अगस्त दो हजार चौदह को जबकि पाकिस्तान में आज़ादी का ज़श्न मनाया जा रहा था उधर सुदूर मध्य एशिया में इस्लामिक ज़िहादियों ने सिंजर पर्वत के एक गाँव कोजो में प्रवेश किया । उन्होंने जिन दर्ज़नों ग़ैर इस्लामिक लोगों को क़त्ल कर दिया उनमें से एक आनिया का शौहर भी था और कोजो गाँव से जिन लगभग एक सौ यज़ीदी स्त्रियों को उठा लिया गया उनमें से एक स्त्री एकतालीस साल की आनिया भी थी । वे सब बीस वर्ष की युवतियों से लेकर बयालीस वर्ष तक की प्रौढ़ायें थीं । युवतियों को तो तुरंत बेच दिया गया जबकि प्रौढ़ाओं को बेचने के लिए ईराक़ और सीरिया के कई स्थानों पर ले जाया जाता रहा । अन्य स्त्रियों की तरह आनिया भी आठ महीने तक बारबार बेची और ख़रीदी जाती रही । फिर एक दिन कुछ तस्करों ने हमला किया तो वहाँ कैद सभी स्त्रियों में एक बार फिर जीने की उम्मीद जाग उठी ।
आनिया अब क़ुर्दिस्तान के एक राहत शिविर में है और कृतज्ञ है उन तस्करों की जिन्होंने आठ महीने तक इस्लामिक ज़िहादियों की यौनदासता के नर्क़ से उसे मुक्त किया । यह जिजीविषा ही थी कि तिल-तिल कर मरती आनिया के लिए हर पल एक नये जन्म की आशा लेकर आता था । इस्लामिक ज़िहादियों की यौन दासता के आठ महीनों की उस अनंत वेदना को अब वह भूल जाना चाहती है, इस बीच उसने असंख्य बार जन्म और मृत्यु के क्षणों को भोगा है । यह आज का ज़िन्दा इतिहास है जो शायद कभी इतिहास नहीं बन सकेगा ...आख़िर इसे लिखेगा कौन ...और ज़रूरत भी क्या है किसी को लिखने की ! दुनिया का ऐसा ही न जाने कितना कुरूप इतिहास कभी नहीं लिखा गया, जबकि यह एक ऐसा अलिखित दस्तावेज़ है जो मनुष्य की पशुता के वीभत्सतम स्वरूप को अपने अन्दर संजोये हुये है ।

(डच ज़र्नलिस्ट ब्रेण्डा स्टोटर की सूचनाओं पर आधारित)

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