सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

वाह-वाह तेरा ख़ुदा !



ताडमोर की पथिकशाला
अब रही वैसी कहाँ !
मिलते थे
चीन-भारत-सीरिया कभी यहाँ
चहल-पहल
पथिकशाला में रहती थी यहाँ
बजती थीं कभी  
बेल-मन्दिर में घण्टियाँ  
थीं बुलाती दूर से
ताडमोर की पहाड़ियाँ
मेजबान मुकुटधारी ताड़ और खजूर
मन्द-मन्द मुस्कराते
कहते, आइये हुज़ूर !
मिटती थी थकान
सुरा-आसव-अरिष्ट पी
भरते जल उदर में
कारवां के उष्ट्र भी  
उगलती रहती धुआँ
पथिकशाला की रसोयी
स्वामिनी सराय की
क्या पता कब से न सोयी
कारवां प्रिय का न जाने
क्यों न आया अब तलक
मिलते थे प्रेम से
चीन-भारत-ग्रीस भी
सुनाते थे किस्से ख़ूब, गाते थे गीत भी ।  
किंतु शत्रु प्रेम के
रहते कब चुप भला
भग्न किये मन्दिर-मठ
नष्ट कर दी कला  
रेशम पथ की सराय
उदास हुयी बार-बार
भग्न मूर्ति पथ खण्डित
मर्यादा हुयी तार-तार ।
कहते हैं लिखा किसी
आसमानी किताब में
तोड़ दो बुत, मन्दिर और मठ
ढहा दो किले-महल
मिटा दो हर गौरव पुराना
मिटा दो इतिहास
लिखा नबी से पहले वो सब
जला दो हर क़िताब, शेष रहे बस क़ुरान
मिटा दो हर आस्था, रहे बस नबी की शान
मचा दो ताण्डव  
उठा लो खींच कर
लड़कियाँ जो भी मिलें  
कर दो तार-तार
तन और मन उनका
नोच लो जो भी मिले, लूट लो जो भी मिले
बहा दो रक्त सबका राह में जो भी मिले
ख़ूब ख़ुश होगा ख़ुदा
मिलेगी जन्नत और रीझेंगी हूर भी
वाह-वाह तेरा ख़ुदा !
क्या बात है तेरा ख़ुदा !

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.