शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

तीन कविताएं

1- 
फटी हुयी है जींस
मेरी भी
और तुम्हारी भी ।
मेरी
ग़रीबी के कारण,
तुम्हारी
अमीरी के कारण ।
मेरी ग़रीबी
फ़ैशन बन गयी है
तुम्हारी अमीरी का ।
मेरे ख़यालात
बहुत पुराने हैं
इसीलिये फ़ैशन नहीं करता,  
फ़ैशन करूँगा
तो मुझे भी उड़ाना पड़ेगा मज़ाक
तुम्हारी अमीरी का
जो बहुत भारी पड़ेगा
तुम्हारे लिये ।

2- 
जो काम
नहीं कर सकेंगे तुम्हारे भगवान !
वो मैं कर सकूँगा
इसलिये  
आप ही हो आइये मन्दिर !
छोड़ दीजिये मुझे
यहीं मन्दिर के बाहर
तुम्हारे जूतों की रखवाली के लिये,
यह काम
भगवान के वश का नहीं है न !

3- 
शहर में देवालय है
शहर में मदिरालय है  
शहर में चकला है 
शहर में थाना है
शहर में सरकार है
शहर में दीवार है ।
दीवारों ने खींच दी हैं
सरहदें
इन सबके बीच,  
इसीलिये
शहर में कोई नहीं सुन पाता  
किसी की आवाज़ ।

आज फिर हुआ है
सामूहिक बलात्कार
जिसकी एक भी चीख
नहीं भेद सकी है   
इन दीवारों को ।
दीवारें बड़ी सख़्त हैं
जब तक रहेंगी
बलात्कार होते रहेंगे ।

आओ !
आज हम ढहा दें सारी दीवारें
मुक्त कर दें
भगवान को भी
देखने दें उसे भी
होता हुआ बलात्कार ।
मेरा दावा है

वह अंतिम बलात्कार होगा । 

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