रविवार, 10 मई 2015

बख़्तियार ख़िलज़ी

नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष

बख़्तियार ख़िलज़ी ! एक ऐसा नाम है जो भारत के सीने में आज भी एक नेज़े की तरह गहरा घुसा हुआ है । हम उस नाम को भूल जाना चाहते हैं किंतु उसकी दी हुयी पीड़ा इतनी गहन है कि चाह कर भी उसे भूल नहीं पा रहे । पटना के पास एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है बख़्तियारपुर । मैं जब-जब वहाँ से होकर गुज़रता हूँ तब-तब बख़्तियार ख़िलज़ी की याद मेरे सीने में नेज़े सी चुभने लगती है । कुछ महीने पहले बिहार प्रवास के समय जब ट्रेन बख़्तियारपुर रेलवे स्टेशन से हो कर गुज़री तो वर्षों पूर्व देखे नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों की स्मृति चलचित्र की तरह मस्तिष्क में उभर आयी । बख़्तियार ख़िलज़ी एक ऐसे व्यक्ति का नाम है जिसने नालन्दा को लूटा, सामूहिक नरसंहार किया और नालन्दा विश्वविश्वविद्यालय को न केवल नष्ट किया बल्कि उसके ग्रंथालय में आग भी लगा दी । तब बड़े परिश्रम से हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ तैयार की जाती थीं । नालन्दा विश्वविद्यालय के ग्रंथागार की ये पाण्डुलिपियाँ कई महीने तक जलती रही थीं ।   
कल भारत की गुरुकुल परम्परा की तुलना में आधुनिक शिक्षा प्रणाली के विषय पर एक समाज-वैज्ञानिक विमर्श के तारतम्य में बख़्तियार ख़िलज़ी की कटुस्मृति ने फिर मेरे घाव को ताज़ा कर दिया जिसके कारण आज मैं यह लेख लिखने के लिये बाध्य हुआ हूँ ।

इस पृथिवी पर सह अस्तित्व के साथ विकास की परम्परा के कई उत्कृष्ट उदाहरण मिल जायेंगे किंतु सह अस्तित्व का एक कलंकपूर्ण उदाहरण भी है और वह है -  शक्ति और धन के लिये सत्ता की प्राप्ति एवं सत्ता की प्राप्ति के लिये शक्ति और धन का संचय । यह एक ऐसा चक्र है जिसमें लोग बड़े उत्साह और प्रसन्नता के साथ उलझते रहे हैं । सत्ता, शक्ति और धन के सहअस्तित्व ने मानव समाज को सम्मोहित भी किया है और आक्रोशित भी । किंतु सभ्यतायें  और संस्कृतियाँ इन तीनों तत्वों के मध्य सदैव ही एक सात्विक सामंजस्य की कामना करती रही हैं । तत्व ज्ञान बड़ी नम्रता किंतु दृढ़ता के साथ हमारा मार्गदर्शन करता रहा है जिसकी हम प्रायः उपेक्षा करते रहे हैं ।
इसी सम्मोहक त्रयी के वशीभूत होकर पूरी दुनिया में तलवारें चलती रहीं, सिल्क रूट जैसे व्यापारिक मार्ग विकसित होते रहे, समुद्री मार्ग खोजे जाते रहे, हिमनदों- पर्वतों-नदियों-नालों और समुद्र को लाँघते-फ़ांदते काफ़िले पूरी धरती पर हड़कम्प मचाते रहे । लूट, व्यापार और सामूहिक हत्याओं के सहारे मनुष्य धरती को नापता रहा । इस बीच बहुत कुछ नष्ट हुआ, थोड़ा सा निर्माण भी हुआ और भारत एक वैश्विक चारागाह बनता चला गया । यूनान, अरब, चीन, और मध्य एशिया के लुटेरे भारत को जी भर लूटते रहे, हत्यायें और बलात्कार करते रहे, धर्मांतरण करते रहे और आर्यावर्त की सीमाओं को काट-काट कर छोटा करते रहे । सातवीं शताब्दी में भारत आने वाले विदेशी व्यापारियों के वंशजों की दृष्टि धीरे-धीरे सत्ता की ओर भी केन्द्रित हुयी । भारतीयों की दुर्बलतायें उन्हें आकर्षित करती रहीं और अंततः विदेशियों ने भारत की धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफलता पा ही ली ।
सातवीं शताब्दी से लेकर आज इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक के काल में भारत की सर्वाधिक क्षति बारहवीं शताब्दी में हुयी जब 1193 में बख़्तियार ख़िलजी ने लूट और सामूहिक नरसंहार के साथ-साथ सैकड़ों वर्ष पुराने भारतीय विश्वविद्यालयों एवं ग्रंथालयों को जलाने और उन्हें नष्ट करने की नयी परम्परा डाली । शिक्षा केन्द्रों और ग्रंथालयों को नष्ट करना किसी भी समाज की अपूरणीय क्षति है । पूरे विश्व में इस प्रकार की अपूरणीय क्षति जिन संस्कृतियों और समुदायों की हुयी है उनमें भारतीय, पेगंस और ज़ोरोस्ट्र के नाम सबसे ऊपर हैं । आज जब हम नालन्दा, ओदंतपुरी, तक्षशिला, विक्रमशिला, सोमपुरा, जगद्दला और वल्लभी जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों के भग्नावशेष देखते हैं तो हृदय गहन वेदना से भर उठता है ।
दुर्भाग्य से, हम आज भी इतिहास से कुछ भी सीखने के लिये तैयार नहीं हैं । भारतीयों को आत्ममंथन करना होगा, यह विचार करना होगा कि आख़िर हमारी वे क्या दुर्बलतायें थीं जिनके कारण हम अपने विश्वविद्यालयों की रक्षा नहीं कर सके । भारत की कई प्राचीन लिपियाँ लुप्त हो गयीं, भाषायें लुप्त होती जा रही हैं और एक मात्र वैज्ञानिक भाषा ‘संस्कृत” लोक व्यवहार से बहिष्कृत हो चुकी है । क्या हम शनैः-शनैः अपना सब कुछ लुप्त हो जाने दे रहे हैं ?  

 विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष

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