बुधवार, 29 अप्रैल 2015

धरती कभी सपाट नहीं थी


ज़िन्दगी निगलती धरती


धरती निगलता समन्दर


ज़िन्दगी निगलती धरती,
धरती निगलता समन्दर,
दरक-दरक भरभराते पहाड़
और रो-रो कर बहते ग्लेशियर !
यही है हमारी विकास यात्रा !
इस विकास यात्रा में
हमने की जीभर मनमानी
तोड़ते रहे प्रकृति के नियम
बनाते रहे अपने क़ायदे 
और होते रहे उच्छ्रंखल
विधाता के प्रति ।
इस बीच
एक दिन थर्रा उठा नेपाल
घूमने लगा
सगरमाथा का माथा ।
उधर
प्रशांत महासागर में
डूबता जा रहा है किरिबाती
विकास की
यही होनी है परिणति । 
हम
फिर उधर ही जा रहे हैं
जहाँ से चले थे ।
धरती कभी सपाट नहीं थी

आज भी नहीं है ।  

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