बुधवार, 19 मार्च 2014

काहे रिसइलू


व्यस्तता ..व्यस्तता ...और व्यस्तता ..... इस बीच कौशलेन्द्र जैसे कहीं खो गया । चिट्ठों से दूर ...गोया वनवास का दण्ड मिला हो । इस बीच बहुत याद आती रही चिट्ठाजगत के स्वजनों की । चाह कर भी तनिक सा समय चुरा सकने में सफल नहीं हो सका । ...और एक तड़प  सी बढ़ती गयी । आज इस वक़्त जबकि रात का एक बज चुका है ...मैं चुपके से उठकर चला आया हूँ ...यहाँ अपने स्वजनों ...आत्मीयजनों से एक पक्षीय संवाद करने .....। 
अब प्रयास रहेगा कि इतना लम्बा अंतराल न हो । आप सबसे बहुत सारी बातें कहनी हैं ...आप सबकी बहुत सारी बातें सुननी हैं .....। 
फ़िलहाल ...
फागुनी बयार के साथ एक फागुनी गीत आप सबके लिए ...

काहे रिसइलू
झूठ-मूठ गोरिया,
लागल झुमे तोहरे
अंगना मं फगुवा ।
भगिह न दुरिया तू
आज मोर गोरिया,
रंग जइह जीभर
हमरे ही रंगवा ॥

तोहरे ही मन के
रन्ग लइ केअइलीं,
झांसा गोरी
अब न दिहा ।    
लाज से लाल,
परीत से पीयर,
रन्ग-रन्ग के
लेअइलीं रंगवा ॥  

धरि माथे मउरा
झुमे लागल अमवा,
कत्थक
करे ला फगुवा ।
टप-टप-टप-टप
रस बरसे लागल,
धरती के
अँचरा मं महुआ ॥

अल्हड़ सरसों
ओढ़ चुनरिया
लचकी जाय कमरिया,
अगिया बारे पूरवा ।  
धरती के छेड़े लागल
टेसू दहिजार,
पंखुरी पे
लिखि-लिखि पतिया ॥  

4 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.