मंगलवार, 16 जुलाई 2013

एली फ़र्नाण्डीज़


 

एली फ़र्नाण्डीज़ बहुत संवेदनशील है, ऐसा लोग कहते हैं। लोग उसे मनबोयी भी कहते हैं ...यानी अपने में खोयी रहने वाली। मुझे उसका खोये-खोये रहना अच्छा लगता है। सच कहूँ तो एली वह ख़ूबसूरत नज़्म है जिसे किसी शायर ने डायरी में लिखकर बन्द कर दिया है। वह अक्सर चुप-चुप रहती है। जब कोई उससे बात करता है तब भी वह चुपचाप केवल सुनती रहती है, बस बीच-बीच में मुस्करा भर देती है..........बादलों से झाँकते चाँद की तरह।

        एक बार मैंने उससे कहा -" इतना चुप रहना लोगों को तुम्हारे गूँगे होने का आभास कराता है.....कुछ तो बोला करो।" वह कुछ नहीं बोली, अन्दर से एक डायरी लाकर मेरे हाथ में रख कर मुस्करा भर दी। (अब मैं उसके चुप रहने और मुस्करा कर संवाद अदा करने की अदा का अभ्यस्त हो चुका हूँ।)

छोटे-छोटे ख़ूबसूरत अक्षरों में लिखी एली की डायरी के हर पन्ने से हाई टाइड की गर्जना होती थी। यह प्रमाण था इस बात का कि एली की चुप्पी और मुस्कराहट कितनी रहस्यमयी थी।

        उसकी डायरी को एक ही बैठक में पूरी पढ़े बिना उठ जाना मेरे जैसे व्यक्ति के लिये संभव नहीं था। एली का व्यक्तित्व उसकी डायरी में मुखरित हुआ था। मुझे लगा कि मेरे कई प्रश्नों के उत्तर इस डायरी में मिल गये हैं किंतु एली को जानना इतना सरल है क्या !

एली की दैनन्दिनि के प्रथम पृष्ठ की चर्चा से पहले बता दूँ कि शांत स्वभाव की ख़ूबसूरत एली ने जब पहली बार बस्तर का तीरथगढ़ जल प्रपात देखा तो उसका चेहरा ख़ुशी से दमक उठा था। और लोगों की तरह उसके मुँह से “वाओ या लिंडो या गज़ब ....या और कोई विस्मयबोधक शब्द नहीं निकला बल्कि उसकी ख़ूबसूरत झील सी आँखों की चमक थोड़ी सी और बढ़ गयी थी। उस दिन वह हल्के नीले रंग के सूट में थी;  दोनो कलाइयों में रुद्राक्ष की ब्रेसलेट्स और ऊपर की ओर खींच कर बाँधा गया जूड़ा उसे और भी विशिष्ट बना रहा था ।

एली कई दृष्टि से विशिष्ट थी। सफ़ेद, पिंक और हल्का नीला उसके पसन्दीदा रंग थे। यूँ उसके ऊपर कोई भी रंग खिल उठता था। एक दिन भूरे रंग के सूट में देखकर मैंने उससे कहा था-  “आज तो आप गिलहरी लग रही हैं”। वह हौले से मुस्करा दी थी।

उसका मुझसे कॉफ़ी के लिये पूछने का अन्दाज़ भी बहुत ख़ास हुआ करता था। वह अपने दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी उंगली से कप की आकृति बनाकर अपनी विस्फारित नीली आँखों से सिर्फ़ इतना पूछती –“ लाऊँ ?” मैं भी उसी अन्दाज़ में आँखें बन्द कर और सिर को एक ओर हल्के से झुका कर स्वीकृति देता या फिर होठों को ऊपर की ओर सिकोड़कर मना कर देता । एली का यह निःशब्द संवाद भी किसी नज़्म से कम नहीं हुआ करता।

समाचार पत्रों की ताज़ी घटनाओं पर वह अपनी टिप्पणी ज़रूर देती थी – “ ...हूँ ...यह अच्छा नहीं हुआ”  या फिर “...... यह एक अच्छी ख़बर है”  या फिर  “.......यह बहुत पहले हो जाना चाहिये था।” जब कभी वह गुस्से में होती तो कहती –“लोग दूसरों को कितना बेवकूफ़ समझते हैं ....... ऐसा नहीं होना चाहिये ....बिल्कुल नहीं ।” 

तो अपनी दैनन्दिनि के प्रथम पृष्ठ पर एली ने छोटे-छोटे ख़ूबसूरत अक्षरों में लिखा था –“संसार में एली फ़र्नाण्डीज़ नाम की न जाने कितनी लड़कियाँ होंगी ; इतनी सारी एलीज़ में से इस एक एली का अस्तित्व और उसकी पहचान क्या है ? पहचान मनुष्य़ की सबसे बड़ी दुर्बलता है .....अहं के बोध से परिपूर्ण ..... मैं स्वीकार करती हूँ कि इस पहचान ने मुझे भी परेशान कर रखा है ...... मतलब यह कि मनुष्य की दुर्बलताओं से मैं भी मुक्त नहीं। हर व्यक्ति के पास उसकी दो पहचानें होती हैं। एक वह जो उसे समाज देता है और दूसरी वह जो वह स्वयं अपने पुरुषार्थ से निर्मित करता है। आवश्यक नहीं कि समाज की दी हुयी पहचान आपकी रुचि के अनुरूप हो, कई बार ये पहचानें आपको परेशान कर सकती हैं ...और उनसे पीछा छुड़ाना आपके लिये एक लम्बे संघर्ष का कारण बन सकता है।”

पोर्तोइण्डियन एली को उबला भोजन पसन्द था । उबला भोजन मतलब केवल उबला हुआ ही ...कॉण्टीनेण्टल। शायद यह रुचि उसे अपने पुर्तगाली पिता से विरासत में मिली थी। एकदम गोरी-चिट्टी एली की माँ थी दक्षिण भारत की एक साँवली सी महिला, हाँ वही महिला जिसे लोग पद्मा लक्ष्मी के नाम से जानते थे। कुमारी पद्मा लक्ष्मी मिस्टर फ़र्नांडीज़ के घर में रसोइया थी और उनके छह साल के मातृहीन बेटे की शिक्षिका भी। बाद में पद्मा लक्ष्मी उस बेटे की माँ भी बन गयी ...स्टेप मदर।

          यह सब पुरानी बातें हैं , बेकरी व्यवसायी मिस्टर फ़र्नाण्डीज़ अब नहीं हैं, श्रीमती पद्मा लक्ष्मी फ़र्नांडीज़ भी नहीं हैं। उनका बेटा पढ़ाई के लिये स्वीडन गया तो फिर कभी भारत वापस नहीं आया। एली फ़र्नांडीज़ इतने बड़े घर में अकेली ही रह गयीं। जब तक माँ रहीं, बेकरी का व्यवसाय संभालती रहीं, उनके जाने के बाद सारी ज़िम्मेदारी एली के कन्धों पर आ गयी ।

एली अपने सौतेले, एकमात्र भाई एण्ड्र्यू के लिये बहुत दिन तक तड़पती रही थी। स्वीडन जाने के बाद कुछ समय तक तो दोनों में पत्रव्यवहार होता रहा फिर एण्ड्र्यू ने एली के पत्रों के उत्तर देना कम कर दिया ...धीरे-धीर पत्र व्यवहार बिल्कुल बन्द ही हो गया। एली बाद में भी बहुत दिनों तक एक पक्षीय पत्र लिखती रही ....उत्त्तर की चिर प्रतीक्षा में। एली के व्यक्तित्व पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा था।  

           मातृ-पितृ-भ्रातृ विहीन एली के दो बहुत अच्छे मित्र भी थे - अकेलापन और ब्लैक कॉफ़ी। किताबों से उसे गहरी मोहब्बत थी, जयशंकर प्रसाद की कामायनी को न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी।  शरत, शिवानी, आशापूर्णादेवी, भगवती चरण वर्मा ....आदि उसके प्रिय लेखक थे। ग्रेजुएशन के बाद वह आगे पढ़ नहीं सकी, किंतु किताबों ने एली को छोड़ने से साफ इंकार कर दिया। वह जब भी बाहर जाती कुछ न कुछ किताबों के साथ लदी वापस आती।

उसके पैतृक बंगले में माधवीलता का एक सघन कुंज था, ....एली के बैठने का सबसे प्रिय स्थान। किताबें पढ़ना होता तो वह वहीं जाती ...बैठकर कुछ सोचना होता तो भी वहीं जाती। वह उसे बोधिकुञ्ज कहती थी।

          डायरी के एक पृष्ठ पर एली ने लिखा था – “ ...कितना सुन्दर नाम है माधवी, कितने सुन्दर हैं इसके पुष्पगुच्छ ...और भीनी-भीनी ख़ुश्बू .....जी करता है पूरी ज़िन्दगी यहीं बिता दूँ।”

भारत के अन्य नव ईसाइयों के विपरीत एली को नियमितरूप से चर्च जाने में रुचि नहीं थी। पास्टर पीटर और बुज़ुर्ग ज़ोसेफ़ को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। पीटर ने उसे कई बार समझाया भी –“ देख रहा हूँ मिस एली ! कि आप नास्तिक होती जा रही हैं .....”

किंतु एली पर इन बातों का कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वह पूर्ववत शांत ही बनी रहती, गोया मौन होकर कह रही हो कि - मेरा चर्च तो मेरे भीतर ही है ...अन्य कहीं जाने की क्या आवश्यकता ?

एक दिन एली ने लिखा – “धार्मिक होने के लिये किसी धर्मस्थल में जाना इतना आवश्यक है क्या? धर्मस्थल में जाने से ही क्या हम धार्मिक और आस्तिक होते हैं? धर्मस्थल इतने अनिवार्य क्यों हैं?”

अगले दिन उसने पुनः लिखा – “धार्मिक स्थलों में भी अमानुषिक कृत्य होते रहे हैं, पूरे विश्व का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है। मुझे लगता है कि मनुष्य होने से बड़ा और कोई धर्म हो ही नहीं सकता।”

एक दिन किसी समारोह में किसी स्त्री ने एली से उसकी जाति पूछ दी। एली ने उत्तर दिया था - “स्त्री।” बाद में उसने अपनी दैनन्दिनि में लिखा – “स्त्री की जाति स्त्री ही हो सकती है और उसका धर्म मातृत्व .....बस, कुछ और नहीं।” 

कभी बंगाल में आयी भीषण बाढ़ में हुयी त्रासदी से द्रवित हो एली कई महीने तक बंगाल के प्रवास पर रही थी। जाने से पहले उसने मुस्कराकर कहा था –“मैं चर्च जाने वाली हूँ ..... कई दिनों के लिये।”

मैंने चौंक कर पूछा था – “कई दिनों के लिये .....मतलब ? अब चर्च में ही बसने का इरादा है क्या?” उसने सिर हिलाया था और उत्तर में दी थी एक निर्मल मुस्कान । तब मैं उसका इरादा समझ नहीं सका था, उसके जाने के बाद बेकरी के अब्दुल्ला ने एक दिन बताया था – “सर ! मैम तो बंगाल चली गयीं .....।”

पूरे आठ महीने बाद एक दिन एली के दर्शन हुये थे। अस्थिपञ्जर बनी एली कहीं से भी थकी हुयी नहीं लगती थी। ग़ज़ब का आत्मविश्वास था उसके अन्दर। मैंने पूछा था – “यह क्या हाल बना रखा है? बाढ़ तो कब की ख़त्म हो गयी ....इतने दिन क्यों लगा दिये ?”

वह मुस्करायी,  “विभीषिका ख़त्म होने के बाद ही तो काम शुरू होता है रीहैबिलिटेशन का। स्वामी पूर्णानन्द ने मुझे भगा दिया वहाँ से। कह रहे थे कि अब तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है। दिन-रात के परिश्रम से तुम्हें कुछ हो गया तो कन्यावध का पाप लगेगा पूरे आश्रम को ।”  

वह हँस दी, शिशुओं सी निर्मल हँसी उसे दैवीय आभा प्रदान करती थी। 

एली हिन्दू साधुओं के एक आश्रम में रहकर रीहैबिलिटेशन के काम में दिन-रात जुटी रहती थी। उसके क्षीण होते शरीर से चिंतित हो स्वामी पूर्णानन्द ने जैसे-तैसे समझा-बुझाकर उसे वापस भेजा।

बंगाल से वापस आने के बाद वह प्रायः सस्वर “असतो मा सद्गमय तमसोमा ज्योतिर्गमय....”  और “हरिओम तत् सत” बोलने लगी थी। यह उसने वहीं सीखा था। मैंने परिहास किया – “ कभी पास्टर पीटर के सामने मत गाइयेगा।”  

वह मुस्कराई – “सनातन सत्य सभी अवरोधों को पार कर प्रकट होने की क्षमता से युक्त है।”

मुझे लगा कि मैं एली का नया अवतार देख रहा हूँ। पर यह सच नहीं था। एली को मैंने जाना ही कब कि उसके नये अवतार के बारे में सोच सकूँ। एक दिन मैंने पूछा – “ एली! तुम क्या हो ... ज़ूविश, क्रिश्चियन या हिन्दू?”

उसने सदा की तरह मुस्कराकर प्रतिप्रश्न किया –“मनुष्य होने के लिये इन सबकी भी आवश्यकता पड़ती है क्या?”

मैंने कहा –“यह समाज की अपेक्षा है। समाज की सीमायें होती हैं, इसीलिये समाज विशेष अपने धर्म विशेष के बन्धन से व्यक्ति को सीमित कर देना चाहता है ।”

उसने गम्भीर होकर कुछ सोचा फिर पूरी इमानदारी से बोली - “बहुत सी हिन्दू, थोड़ी सी ज़ूविश और थोड़ी सी क्रिश्चियन।”

मैं हँसा – “ यह भी ख़ूब रही। यह तो भारतीय नेताओं वाला आचरण है। चर्च, सिनेगॉग या मन्दिर कहीं भी जाने से अब कोई तुमसे कभी नाराज नहीं होगा।“

वह गम्भीर हो गयी – “मुझे नहीं लगता कि सनातन सत्य के लिये इन आश्रयों की आवश्यकता है। लोग इन बन्धनों से मुक्त कब हो पायेंगे। क्या हमारी पहचान चर्च, सिनेगॉग, मस्ज़िद और मन्दिर के बिना सम्भव नहीं ? ”

“मेरे पिता यहूदी थे और माँ हिन्दू .... अपनी पहचान के लिये अपने माता या पिता के धर्म के अनुकरण की बाध्यता किसी के लिये क्यों होनी चाहिये ? जहाँ तक जीवनशैली और परम्पराओं की बात है तो मैं भारतीय सनातन परम्परा के समीप स्वयं को अधिक पाती हूँ ...और क्या किसी भारतीय नागरिक के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है? किंतु भारतीय समाज में मेरी पहचान इस रूप में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकी।”

  मुझे लगा कि अल्पभाषी एली के पास आज बहुत कुछ था कहने के लिये । मैं लगातार एली के चेहरे की ओर देखता जा  रहा था, उसके माथे के नीचे की दोनो झीलों में पानी की एक लहर उठ आयी थी। उसके हृदय की गहन पीड़ा को सहज ही अनुभव किया जा सकता था।

मैंने धीरे-धीरे कहा – “मैं आपकी पीड़ा को समझ सकता हूँ एली ! आपके इस दुःख में मैं आपके साथ हूँ, कोई उपाय होता तो मैं यह दुःख अपने लिये ले लेता।

 .........किंतु देखो, समाज एक समूह है ...और समूह परम्पराओं से नियंत्रित होते हैं। परम्पराओं का प्रारम्भ तो विवेकपूर्ण होता है किंतु परम्परायें स्वयं में निर्णायक क्षमता नहीं रखतीं। परम्पराओं की परिमार्जक और नियामक शक्तियाँ चिंतकों के पास होती हैं। चिंतक को सूत्रधार भी होना होता है, दुर्भाग्य से भारतीय समाज में आज सूत्रधारों का अभाव है। ....और याद रखना एली! कि आपके जैसे लोग ही समाज में सूत्रधार भी बनते हैं।”

वह कुछ नहीं बोली, चुपचाप उठकर अपने बोधिकुञ्ज में चली गयी। जाते-जाते मैंने देखा, नीली झीलों में रक्तिमा उतर आयी थी।  

कई बार मैं एली से नाराज़ हो जाता था। वह कभी भी, कहीं भी चल देती थी, वह भी दीर्घ प्रवास पर ....और जब वापस आती थी तो अस्थिपञ्जर काया के साथ। मैं नाराज होता, उसे समझाता, बुझाता, झिड़कता । वह मुस्कराकर अंगूठे और तर्जनी से कप बनाकर विस्फारित नयनों से पूछती –“लाऊँ?” तब बात टालने के उसके इस भोलेपन पर मेरी आँखे छलक उठतीं। वह अपना चेहरा मेरी आँखों के समीप लाकर अपनी बड़ी-बड़ी नीली आँखों से पूछती- “क्या हुआ?” फिर अपने विस्फारित नयन झुका कर मानो कहती –“ओह! सॉरी ...आपको दुखाया मैंने।”

“अफगानिस्तान में लोगों की हालत अच्छी नहीं है, मुझे जाना होगा।” – एक दिन एली की इस घोषणा से मैं डर गया। यह लड़की पागल हो गयी है क्या? मैंने गुस्से में एक-एक अक्षर पर जोर देते हुये कहा – “तुम कहीं नहीं जा रही हो, समझीं ।”

वह सहम गयी और अपने बोधिकुञ्ज में जाकर बैठ गयी ।  

कुछ दिन बाद वह मेरे घर आयी, सफेद फूलों के एक बुके के साथ। मुझे मनाने का यह उसका सबसे प्रिय तरीका हुआ करता था। आज सोचता हूँ, एली ने न जाने कितनी बार मनाया होगा मुझे किंतु ऐसा अवसर कभी नहीं आया कि मुझे भी एली को मनाना पड़ा हो कभी।

उसने पास आकर बुके मेरी ओर बढ़ाया। गुस्से में भी एली से बुके न लेने का साहस मुझे कभी नहीं हो पाया। मैंने चुपचाप बुके ले लिया। उसने सिर्फ़ थैक्स कहा, मेरे सिर पर हाथ फेरा, जैसे कि मेरी माँ हो, फिर दरवाज़े की ओर मुड़ गयी।

धीरे से मैं केवल नाम भर पुकार सका – “एली ........”

वह घूमकर मुस्कराई, उसके चेहरे पर दृढ़ता थी और नीले नयनों में निर्मलता। उसने हाथ हिलाकर अभिवादन किया और सीढ़ियाँ उतर गयी।  

एली अफगानिस्तान चली गयी। किंतु यह उसका अंतिम प्रवास सिद्ध हुआ। एक दिन ख़बर आयी कि तालिबानियों ने एली की बड़ी निर्ममता से हत्या कर दी है। जिसने भी सुना, सन्न रह गया। एली जैसी निर्मल और प्यारी लड़की से भी किसी को शत्रुता हो सकती है .....एक ऐसी लड़की से जो सदा दूसरों के लिये ही जीती रही ? तालिबानियों का यह कैसा इस्लाम है जो लोगों के प्राणों को क्रूरतापूर्वक छीनकर ही अपनी धार्मिक पिपासा को शांत कर पाता है ? धार्मिक पिपासा यदि इसी तरह शांत हो सकती है तो मनुष्य के लिये ऐसे किसी धर्म की कोई आवश्यकता नहीं।

जब मैं एली के घर पहुँचा तो लोगों की भीड़ लगी थी। अब्दुल्ला बिलख-बिलख कर रो रहा था। वह आर्त्त हो चिल्ला रहा था – “ मैं यतीम हो गया ....।”

पूरी भीड़ रो रही थी और मैं रो कर भी ख़ुश हो रहा था। एली के घर के सामने हर समुदाय के लोगों की भीड़ थी किंतु किसी को एली की जाति या धर्म से कोई मतलब नहीं था। लोगों का बिलखना यह घोषणा कर रहा था कि एली को उसकी पहचान मिल चुकी थी।

एली अफगानिस्तान जाकर कभी वापस नहीं आ सकी। पर मैं आज भी रोज एली से बातें करता हूँ और वह आज भी अपने अंगूठे और तर्जनी से कप बनाकर मुस्कराते हुये अपने विस्फारित नीले नयनों से पूछती है – “लाऊँ?”

समाप्त।   

( एली की निर्मम हत्या को मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। मेरे लिये वह न कभी मरी थी न कभी मरेगी। जब तक मैं जीवित हूँ, एली जीवित रहेगी। एली की हत्या से व्यथित अब्दुल्ला कुछ दिन तक बेकरी चलाने के बाद पता नहीं कहाँ चला गया। मैं, जब-तब समय निकाल बोधिकुञ्ज में बैठकर एली से बातें करता रहता हूँ। )            

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