गुरुवार, 20 सितंबर 2012

खुसरूपुर वाली बहुरिया


उस कच्चे रास्ते के दोनों ओर तलवार सी पत्तियों वाली पतार की घनी पंक्ति को चीर कर यदि आप उस ओर जा सकें तो दोनों ओर मूँगफली के लहलहाते खेत देख सकेंगे। किंतु दस-दस हाथ ऊँची पतार के झुरमुट को चीर कर उधर झाँक पाना एक आम राहगीर के वश की बात नहीं। अपने गाँव से सोनपुर रेलवे स्टेशन आते-जाते न जाने कितनी बार मुझे इस रास्ते के दोनों ओर छिपे खेतों ने आकर्षित किया है। पतार के झुरमुट को पार करने का कभी साहस नहीं कर सकी किंतु इस रास्ते को पार करते ही छदामी के टीले पर चढ़कर मूँगफली के खेतों को जी भर निहारती रही हूँ। जो छिपा है वह अधिक आकर्षित करता है, हम सब की यही प्रवृत्ति है। इस सहज आकर्षण पर विजय पाना सरल नहीं। गुह्य के अनावरण के प्रति हमारी लिप्सा हमें शांत कब बैठने देती है ! पर गुह्य के अनावरण का मार्ग भी तो सरल नहीं। इसीलिये वैकल्पिक मार्गों की ओर ही हमारा ध्यान पहले जाता है किंतु इन मार्गों के अपने संकट भी तो कम नहीं।

आज मैं अपने मन की आँखों से पतार के धारदार झुरमुट के उस पार मूँगफली के हरे-भरे खेतों के बीच यामिनी को भी अच्छी तरह देख पा रही हूँ ...उसी यामिनी को, जिसे देख कर भी देख नहीं पायी थी इतने वर्षों तक।

हमारे गाँव के बिल्कुल ही किनारे पर एक तालाब है। ठाकुर उदेतसिंह ने अपनी ज़मींदारी के दिनों में गाँव के गाय-गोरुओं को पानी उपलब्ध कराने के लिये यह तालाब बनवाया था। ज़मींदारी समाप्त हो गयी, ठाकुर भी पंचतत्व में विलीन हो गये। तालाब के किनारे जिनके घर बने थे उनके लोभ नें तालाब की सीमाओं पर किश्तों में डाका डालना शुरू कर दिया था। तालाब की अपनी सीमायें और विवशतायें होती हैं .... अब वह संकुचित होने लगा था। उसे अपना अस्तित्व बचाने के लिये पोखर का रूप धारण करना पड़ा। किंतु एक दिन अनायास ही एक नन्हीं सी बूँद ने विद्रोह कर दिया। उसके विद्रोह का साक्षी पूरा गाँव रहा है। नन्हीं सी बूँद का विद्रोह किसी को सहन नहीं हुआ था और सच पूछो तो उस समय तो मुझे भी नहीं।  

खुसरूपुर की यामिनी हमारे गाँव की बहू बनकर आयी थी, सुमेर सिंह की ब्याहता बनकर। अधिक पढ़ी-लिखी तो नहीं थी किंतु मात्र कुछ ही देर की वार्तालाप से कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि एम.ए. पास जैसी लगने वाली बहू वास्तव में मात्र आई.ए. तक ही पढ़ी है। रंग-रूप था औसत से सुन्दर के बीच की किसी सीमा को स्पर्श करता हुआ सा .... किंतु सुरुचिपूर्ण परिधान और मधुर व्यवहार ने उसे आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी बना दिया था।

मुँह दिखायी के समय ही महिलाओं में खुसुर-पुसुर होने लगी थी। उसी शाम पूरे गाँव के हर घर के पुरुष को जो सूचना अपनी विश्वस्त सूचनादायिनी से प्राप्त हुयी उसके आधार पर “हूर के साथ लंगूर” वाली कहावत को प्रमाण सहित पुनः स्थापित करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हुयी। सुमेर का आपाद-मस्तक विवरण प्रस्तुत करने की सामर्थ्य जुटाना मेरे लिये सम्भव नहीं। बस, इतना जान लीजिये कि गाँव में अपनी परचून की दुकान चलाने वाले थुलथुल शरीर के विशाल राज्य पर नियंत्रण कर पाने में अक्षम रहने वाले क्षत्रप सुमेर सिंह बदसूरती की सभी सीमाओं तक अपनी पहुँच बना सकने में सफल मान लिये गये थे। लक्ष्मी जी की कृपा उन पर बनी हुई थी जिसके प्रभाव से उनके पूज्य पिताजी को अपने अँगूठाछाप पुत्र के लिये खुसरूपुर के  एक निर्धन की कन्या को बहू बना कर लाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था। सुमेर की बारात जब बहू के साथ वापस आयी तो गाँव में चारो ओर एक ही चर्चा थी –“गैंडा संग हिरनी के बिहा हो गइल रे !”   

अब पता नहीं यह संयोग था या कोई ठोस कारण कि यामिनी गाँव की महिलाओं के लिये ईर्ष्या और पुरुषों के लिये चर्चा का विषय बनी रहती थी। मुँह दिखायी वाले दिन के अतिरिक्त कुल मिलाकर अभी तक मैं चार-पाँच बार ही उससे मिली होऊँगी। दूसरी बार किसी के घर शादी-ब्याह के अवसर पर मिली थी ...चहकती हुयी यामिनी का वह रूप आज भी याद है। तीसरी बार वह स्वयं ही आयी थी मुझसे मिलने ............ वह मेरी और यामिनी की पहली वार्ता थी किंतु पूरे सात घण्टे तक चली वह वार्ता क्या भुलायी जा सकती है कभी!

विवाह के सात वर्ष बाद भी उसकी सूनी गोद ने लोगों को चर्चा का एक और विषय दे दिया था। इसका प्रभाव यामिनी पर भी पड़ा, वह दुःखी रहने लगी थी। तभी एक दिन जेठ की भरी दोपहरी में उसने मेरे घर की कुण्डी खटखटायी। उसे अपने घर आया देख मुझे आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ था। मैं अपने कच्चे घर की भीतर वाली कोठरी में लेकर गयी थी उसे।

  मेरे घर आने से एक दिन पहले ही यामिनी पटना के डॉक्टर सोम के पास गयी थी। वहाँ यामिनी ने डॉक्टर को अपनी जो समस्या बतायी उसे सुनकर एक बार तो डॉक्टर भी लजा ही गया होगा।

  यामिनी के बैठते ही डॉक्टर सोम ने अपने व्यावसायिक अभ्यासवश नपे-तुले शब्दों में पूछा था –“ बताइये, क्या तकलीफ़ है?”

  यामिनी ने उत्तर दिया था- “शादी के सात साल हो गये ....बच्चे नहीं हुये ...किंतु समस्या यह नहीं है.....”

  डॉक्टर सोम को आश्चर्य हुआ, उन्होंने उसके चेहरे की ओर देखते हुये पूछा – “तब ... समस्या और क्या है?”

  यामिनी ने निःस्संकोच हो कहा था- “मैं अपने पति से संतुष्ट नहीं हो पाती....मुझे लगता है जैसे कोई मेरे साथ बलात्कार कर रहा है।”

  कुछ क्षण के मौन के बाद डॉक्टर सोम ने पूछा- “जो शिकायत आपको अपने पति से है कहीं वही शिकायत उन्हें भी तो आपसे नहीं?”

  उत्तर मिला- “नहीं ..उन्होंने कभी ऐसी कोई शिकायत नहीं की...वे मुझसे संतुष्ट हैं ...बस मैं ही नहीं हो पाती...।”

  डॉक्टर ने सहानुभूति के साथ पूछा –“ क्या आपके पति आपके साथ आये हैं? अच्छा होगा यदि वे भी आपके साथ मेरे सामने हों  ।”

  यामिनी बोली- “नहीं, वे आ नहीं सकते..... बहुत मोटे हैं ...चलने में परेशानी होती है। मैं अपने ससुर के साथ आयी हूँ ....बाहर बैठे हैं।”

  डॉक्टर सोम कुछ क्षण चुप रहकर बोले- “देखिये, यह कोई रोग नहीं है, आप दोनो एक दूसरे को समझने की चेष्टा कीजिये......अपने पति से प्रेम कीजिये .... यह शरीर का नहीं आपके मन का विषय है ......”

  यामिनी ने टोका –“शरीर का ही है डॉक्टर ! आप मेरी समस्या को समझिये ..... वे मेरे साथ कुछ भी करते रहें मुझे कोई संवेदना नहीं होती .....एक बूँद पानी नहीं झरता ....... ”

  “माय गॉड ....... ”- डॉक्टर सोम के मुँह से अचानक निकला।

  डॉक्टर सोम असहज होने लगे थे...धाराप्रवाह बोलने वाले सोम रुक-रुक कर ......सोचते हुये ...अंतराल के बाद बोल पा रहे थे। उन्होंने पूछा- “यह स्थिति प्रारम्भ से ही है या ......”

  यामिनी बोली- “हाँ ...प्रारम्भ से ही है ...मुझे उस गैंडे को देखते ही घिन आती है ..... उनके साथ होने पर कभी भी मैं भीग नहीं पाती ....लेकिन ट्रेन में यदि कोई जरा सा छू भी ले तो मैं बुरी तरह भीग जाती हूँ।......मैं आपके पास बड़ी आशा से आयी हूँ सर! ......सुना है आप बहुत अच्छी दवा देते हैं .... कुछ तो कीजिये ....कोई तो उपाय होगा ....”

  डॉक्टर ने कहा –“माफ़ कीजिये! दवाइयों की अपनी सीमा है ...हम आपकी समस्या की गम्भीरता को समझ रहे हैं किंतु आपके लिये कुछ कर पाने में असमर्थ हैं ........आप ऐसा कीजिये, डॉक्टर बत्रा जी से मिल लीजिये वे बहुत अच्छे कौंसेलर हैं .... मैं उन्हें फ़ोन कर देता हूँ..... ”

  यामिनी ने निराश होते हुये कहा था –“...तो आप मेरे लिये कुछ भी नहीं कर सकते?”

  डॉक्टर ने कहा-“ यामिनी जी ! आपको कौंसेलर की आवश्यकता है।”

  तड़प कर उठ खड़ी हुयी थी यामिनी, बोली- “मुझे किसकी आवश्यकता है यह आप क्या समझेंगे।”

  अचानक उसकी आँखों से धाराप्रवाह आँसू बहते देख डॉक्टर सोम भी व्यथित हो उठे। दुःखी हृदय से वे अपनी कुर्सी से उठे और धीर से बाहर निकल गये। यामिनी वहीं खड़ी रह गयी।

  कुछ समय बाद यामिनी जब सहज होकर डॉक्टर सोम के कमरे से बाहर आयी तो उसने देखा कि डॉक्टर  अपने बंगले के लॉन में साइकस के पेड़ के पास खड़े किसी चिंता में डूबे थे। यामिनी ने पास आकर धीरे से केवल इतना ही कहा –“वह डॉक्टर ही क्या जो रोगी की पीड़ा न समझ सके।”

  सोम को लगा जैसे किसी ने उन्हें जोर से थप्पड़ जड़ दिया हो। वे हतप्रभ खड़े रह गये, यामिनी तेजी से अपने ससुर के पास जाकर बोली – “चलिये, महेन्द्रूघाट चला जाय ...पहलेजा का जहाज खुलने में अभी आधा घण्टा है।”  

 

  यामिनी मेरी गोद में सिर रखकर फफक-फफक कर रो रही थी...मेरा हाथ उसकी पीठ पर था और डॉक्टर सोम की ही तरह मैं भी हतप्रभ थी।

  कुछ देर बाद संयत हो कर यामिनी बोली- “उस लिजलिजे काले गैण्डे से कोई प्रेम कैसे कर सकता है ? बाबू जी तो मुझे भाड़ में झोंक कर अपने बोझ से मुक्त हो गये ......मैं अपने हृदय के बोझ को कहाँ फेकूँ? .....कहाँ पटकूँ? ....कैसे मुक्त होऊँ? ...यहाँ कहीं उतार फेकूँ तो गाँव में किसी को कैसे मुँह दिखाऊँगी? सोचा था पटना बड़ी जगह है, वहाँ कौन जानेगा? डॉक़्टर थोड़ी रहम कर देंगे तो कुछ पल के लिये जी जाऊँगी...मैं ये ज़िन्दगी यूँ ही कैसे बरबाद हो जाने दूँ ......शराफ़त के लबादे में कैद होकर रात-दिन ख़ून जलाने की महानता का श्रेय लेने में अब उतना यकीन नहीं रहा। मैं गलत हो सकती हूँ चाची! लेकिन तनिक मेरी हालत में कोई ख़ुद को ही रख कर क्यों नहीं देखता। आदर्शों के उपदेश पचा सकना कितना मुश्किल होता है।”

  वह फिर सिसक उठी थी। उसकी हालत देख कर मैं भी विचलित हुये बिना न रह सकी। उफ़्फ़! स्त्री के लिये यह कैसी यंत्रणा है! एक ओर है धरती का कठोर सत्य, दूसरी ओर है जीवन का कठोर आदर्श। पुरुष हो तो कोई वर्जना नहीं, भले ही वह महर्षि ही क्यों न हो, आवश्यकता होने पर दो विवाह की आज्ञा समाज ने दे दी उन्हें। आवश्यकता होने पर यही आज्ञा स्त्री के लिये क्यों नहीं है?

 

   दियाबत्ती का समय हो गया था। अपने हृदय में उठते हाहाकार के साथ मुझे भी झकझोरते हुये यामिनी ने घर जाने के लिये विदा ली। उसके दुःख से मैं भी दुःखी हुयी ...पर चाहकर भी कुछ कर नहीं पायी। यामिनी धधकती हुयी आयी थी, धधकाती हुयी चली गयी। इस धधक को बुझाने के लिये कहीं कोई समन्दर नहीं बनाया उस निर्मोही ने। सबकुछ बनाया उसने पर वह नहीं बनाया जिसके होने से यामिनी के जीवन की कोमल कोपल को सुलगने से बचाया जा सकता।     

   उस घटना को बीते कई दिन हो गये। ठाकुर उदेत सिंह का बनवाया तालाब संकुचित होते-होते पोखरा बन चुका था। पानी जैसे-जैसे कम होता जा रहा था कीचड़ भी वैसे ही वैसे बढ़ता जा रहा था। यामिनी के जीवन में भी कीचड़ ही कीचड़ था। जीवन को प्राण देने वाला रस सूख चुका था कि तभी एक दिन उस पोखरे की एक नन्हीं सी बूँद ने विद्रोह कर दिया। उस विद्रोह का साक्षी पूरा गाँव रहा है। पूरे गाँव ने देखा कि पानी की एक विद्रोही बूँद उछली.... उछली कि बादल पर आरूढ हो बिहार करूँगी। पर उसके इसी दुस्साहस ने उसे सड़ाँध मारते एक गन्दे नाले में ला पटका था।  

  यामिनी को पलायन किये हुये कई दिन हो चुके थे। प्रारम्भ में तो गाँव में बहुत दिन तक यामिनी की ही चर्चायें होती रहीं। कोई कहता पटना में किसी की रखैल बन गयी है कोई कहता कि उस जैसी ही एक स्त्री को कलकत्ता के बहूबाज़ार में देखा गया है। वर्जनाओं से अटे पड़े समाज को चटखारे ले लेकर अपनी कलुषित लोलुपता को शांत करने के लिये एक भग्न वर्जना से निःसृत होने वाले रस की प्राणशक्ति मिल चुकी थी। किंतु कोई भी रस कितनी ही प्राणशक्ति वाला क्यों न हो कभी तो समाप्त होता ही है। धीरे-धीरे लोग यामिनी को भूलते गये। रोज-रोज के चटखारे अब बीती बात बन चुके थे।

 

  बहुत दिन बाद, फिर एक दिन, जैसे वह गायब हुयी थी वैसे ही अनायास प्रकट भी हो गयी। प्रकट तो हुयी....  किंतु अपना सर्वस्व खोकर। जिस पर उसने विश्वास किया था उसी के द्वारा छली गयी वह...और अंत में पहुँच गयी एक मण्डी में। लगभग दो बरस तक भागलपुर की सुहासिनी मौसी के यहाँ रहते हुये मृगतृष्णा में भटकने के बाद उसे अपना लिजलिजा गैंडा बहुत याद आने लगा था। एक दिन अवसर पाते ही यामिनी भाग निकली वहाँ से। भागलपुर जंक्शन न जाकर उसने चम्पानगर के छोटे से स्टेशन से गाड़ी पकड़ी, क्या पता कहीं सुहासिनी के आदमी खोजते हुये आ न धमकें। मुजफ़्फ़रपुर तक उसकी जान संशय में अटकी रही। मुजफ़्फ़रपुर आते ही उसने चैन की साँस ली किंतु अब उसे एक भय और सताने लगा था। पता नहीं सुमेर उसे ऐसी स्थिति में स्वीकार करेगा भी या नहीं। न जाने कितनी बातें उसके मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रही थीं।

  गाड़ी जब सोनपुर पहुँची तो पौ फटने में कुछ देर थी। सोनपुर से पगडण्डी पकड़ उसने सीधे मेरे ही घर का रुख किया था। रास्ते भर चिड़ियाँ मंगलगान करती रहीं। ओस की बूँदों के भार से मार्ग पर ही झुक आयी तेज धार वाली भीगी पतार के रास्ते को चीरती हुयी जब तक वह मेरे घर पहुँची तब तक भोर की लालिमा भी उसका स्वागत करने के लिये प्रकट हो चुकी थी। तभी चिड़ियों ने अपने गंतव्य की ओर उड़ान भरना प्रारम्भ किया और यामिनी ने हमारे दरवाजे को खटखटाया।

  मुझे आश्चर्य हुआ, इतने भिनसारे कौन हो सकता है? किंतु जब दरवाजा खोला तो सहज ही विश्वास नहीं हुआ। अचानक मेरे मुँह से निकल पड़ा- “बहू! ......................... तुम? .....अतना भिनसारे ....तहार लूँगा कsइसे भीगल...अs ई चेहरा पे खून ?”

  झुक कर पैर छूते-छूते उसने एक ही साँस में मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिये, बोली- “बड़ा दुरिया से आवतनी...लूँगा ओस मंs भीगल हs.......चेहरा पतार से चिरा गइल।”

  मैंने उसे आशीर्वाद दिया तो वह एकदम से लिपट गयी। वह बहुत थकी-थकी सी लग रही थी। थकी भी ...और उजाड़ भी। लगता था जैसे इन दो ही वर्षों में उसने कितनी उम्र पार कर ली थी। आकर्षक काया की स्वामिनी मरियल भिक्षुणी सी लग रही थी।

  सूरज जब थोड़ा चढ़ आया तो मैं यामिनी को लेकर सुमेर के घर पहुँची। सुमेर ने जैसे ही यामिनी को देखा तो रुआसा होकर बोला –“हमरा से का गलती भsइल रहे....?”

  यामिनी कुछ नहीं बोली, बस जाते ही सुमेर के पैरों पर गिर पड़ी। सुमेर ने यामिनी को उठा कर छाती से लगा लिया। वह हिचकी ले लेकर रोये जा रही थी। क्षण भर में ही शंकाओं-कुशंकाओं के घने मेघ छट गये।  कोई प्रश्न नहीं ...कोई वार्ता नहीं .....केवल उदार स्वीकार। सुमेर के शरीर की तरह उसका हृदय भी कितना विशाल था इसके लिये अब किसी प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी थी।  

  बहुत देर बाद जब वह संयत हुयी तो जैसे-तैसे इतना ही बोल सकी, -“हमार अपराध माफ़ी लायक नई खे।”

सुमेर कुछ नहीं बोला, बस टुकुर-टुकुर ताके जा रहा था यामिनी को और रोये जा रहा था।

  मेरी भी आँखें भर आयीं...भरे गले से सुमेर के हाथ में यामिनी का हाथ सौंपकर मैंने कहा- “ले बाबू सँभाल ....हम जातsनी।” 

  अपराधबोध से ग्रस्त यामिनी को सामान्य होने में कुछ दिन और लगे। मुझे लगा यामिनी को सुमेर के साथ-साथ मेरी भी आवश्यकता है, कम से कम स्थित सामान्य होने तक तो अवश्य ही। बीच-बीच में वह थोड़ी देर के लिये मुझसे मिलने आ जाया करती थी। एक दिन जब मैं उसके घर पहुँची तो देखा कि रोज की अपेक्षा उस दिन यामिनी ने साधारण ही किंतु सुरुचिपूर्ण ढंग से श्रृंगार भी किया था। मैंने उसे छेड़ा- “लगता है आज गैंडे की किस्मत अच्छी है।”

 उसकी आँखें भर आयीं, मुझसे लिपट कर बोली- “वे लिजलिजे गैंडे नहीं हैं?"

 

 यह पहली बार था कि यामिनी उस पूरी रात भीगती रही थी। लगता था जैसे पूरा समन्दर ही उमड़ पड़ा हो। अगली सुबह सुमेर ने देखा कि गुलाब के फूल ओस से नहाये हुये हैं।

1 टिप्पणी:

  1. क्या बात है ....
    लाजवाब .....!!!!!!!!!!

    शायद ही इस विषय पर कभी किसी ने लिखा हो .....

    बहुत खूब ....!!

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.