मंगलवार, 1 मई 2012

पैबन्द पसन्द हैं हमें

पैबन्द हमारी विकासमान संस्कृति के हिस्से बन चुके हैं, आज बिना स्लम के किसी नगर की कल्पना नहीं की जा सकती। स्लम ही क्यों .....मध्यवर्गीय रिहाइशी इलाकों में भी गंदगी के पैबन्दों के बिना हम जी ही नहीं सकते ....अब गन्दगी ही हमारी ज़िन्दगी है

गन्दगी और विकास ...चोली दामन का साथ

 

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा ...

हम बेख़बर हैं ..अपनी ज़िम्मेदारियों से ..बिना यह विचारे हुये कि सोता हुआ अजगर कहीं जाग गया तो ?

 

जी! यह कोई नाला नहीं ...गंगा है ....राजा भगीरथ के प्रयत्नों से धरती पर लायी गयी ....कानपुर से होकर बहने वाली गंगा। ट्रेन से गुज़रते हुये न जाने कितनी बार बीमार गंगा को देखता रहा हूँ। अपने साथ लायी पोटली को गंगा में फेकने वाले रेल यात्रियों से बहस करता रहा हूँ । हम सब राजा सगर हो गये हैं ...पुण्य लूटने के व्यामोह में गंगा को नाला ....और अब नाले को सरस्वती बनाने पर तुले हुये हैं। रेल पुल से मैली गंगा का एक दृश्य .... 


 

अब गंगा के चेहरे पर उगती है फ़सल

 

...और फसल को निगलती है हमारी हवस ....

उपजाऊ मिट्टी से बनती बेज़ान ईंटें
 

उपजाऊ ज़मीन को निगलते उद्योग .. 

 

और अंत में .....

रखनी हो जो लाज घूँघट की

तो दुपट्टा भी नहीं है कम

वरना साड़ियों के पल्लू भी

बहुत छोटे लगते हैं ...।

लिबास पहरेदारी करते हैं हया की,

किसे नहीं है पता

निकले हैं जो ओढ़कर बेहयाई,

कहते हैं लिबास बड़े खोटे लगते हैं।   

 

सभी चित्र चलती हुयी ट्रेन से लिये गये हैं

12 टिप्‍पणियां:

  1. दुखद है................

    मगर दुःख मनाने की बजाय हमे अपने स्तर पर कुछ तो प्रयास करने चाहिए...

    हर ब्लॉगर ही कम से कम पोलीथीन बैग का इस्तेमाल बंद कर दे तो कुछ भला हो हमारी धरती का......
    हम तो बिलकुल नहीं करते....

    सादर.

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    1. हम पार्क में बैठकर खायी हुयी मूंगफली के छिलके....आइस्क्रीम की कोन....पॉलीथिन बैग आदि वहीं फेकने की बजाय किसी कूड़ेदान में डाल सकते हैं। बाज़ार जाते समय थैला घर से लेकर जाने की आदत फिर से बनानी होगी। मैं ऐसा ही करता हूँ।

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  2. जीवंत समस्या, सटीक कविता। न हमें व्यवस्था की आदत है न व्यवस्था को हमारी। जहाँ सारा संसार सभ्यता के पथ पर अग्रसर है हम जाने-अनजाने अराजकता, अव्यवस्था, भेद और द्रोह को बढावा दे रहे हैं, और क्या उम्मीद की जा सकती है। जैसी खाज, वैसा इलाज!

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  3. जोरदार पोस्ट। अभिव्यक्ति के लिए चित्र और शब्द का बेहतरीन प्रयोग।

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  4. बहुत सुंदर बेहतरीन प्रस्तुति,..पोस्ट पर चित्रों का प्रयोग अच्छा लगा,..

    MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....

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  5. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
    बुधवारीय चर्चा-मंच पर |

    charchamanch.blogspot.com

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  6. बिना पैबंद अस्तित्व नहीं लगता

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  7. विचारणीय पोस्ट .... अपने स्तर पर हर कोई को प्रयास करना चाहिए ॥

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  8. डॉक्टर साहब,
    किसी ने कहा था कि ट्रेन की यात्रा में जब किसी स्टेशन के पहले गंदगी दिखाई देनी शुरू हो जाए, तो समझिए कि कोई बड़ा शहर आने वाला है.. ऐसे पैबंद ही दरसल उन रेशमी चादर की पहचान हैं.. शायद उनके रेशमी होने का पता ही टाट के पैबंदों के कंट्रास्ट से लगता है.. हम तो रोज सुबह शाम जमुना जी को देखते हैं.. और मेट्रो के इन्द्रप्रस्थ स्टेशन के आते ही नाक पर रुमाल रख लेना पड़ता है सिर्फ दरवाजा खुलने और बंद होने के मध्य!! यही जमुना जी में जाकर गिरता है नाला.. कालिंदी को काली नदी बना दिया है!!
    बहुत सुन्दर फोटो फीचर!!

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  9. भइया जी!राष्ट्रीय सम्पत्ति हमारी अपनी है हम इसका स्तेमाल अपने-अपने तरीके से करते हैं। जैसे रेलवे ट्रेक का प्रयोग अपनी समस्त शंकाओं के निर्विघ्न निवारण हेतु। मानव मल की विशिष्ट दुर्गन्ध के परिणामस्वरूप हम बिना बाहर झांके समझ जाते हैं कि नागपुर, झांसी, कानपुर.....आ गया है। कई बार सोचता हूँ कि विश्वगुरु रहे भारत के लोग अभी तक मल विसर्जन की मौलिक क्रिया में पारंगत होना तो दूर सही ढंग से सीख तक नहीं पाये। पराधीनता में पड़ी हुकुम बजाने की आदत से एक जेनेटिक म्यूटेशन हो गया है हमारे अन्दर ..अब बिना डंडे के कोई बात सीधे से समझ ही नहीं आती हमें। केरल पहुँचते ही हम सड़क पर निपटने की अपनी आदत क्यों छोड़ देते हैं?...जैसे ही हम उत्तर भारत में आते हैं ...पूरी धरती को संडास बना देते हैं। प्रदूषण फैलाने में हम सफल रहे हैं और इसे रोक पाने में हमारी सरकार पूरी तरह विफल। लाग किसे दें?

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.