सोमवार, 30 अप्रैल 2012

जहाँ मिलें दो कौर वहीं हो जाता अपना ठौर ..

हाय पैसा...हाय पैसा ....दिन का चैन गया रात की नींद गयी ....ब्रिटेन में अम्बानियों का घर रहने के लिये कितना छोटा है! और इनका घर! ...कितना विस्तृत ! जहाँ छाँव वहीं ठाँव .....भला जीने को और क्या चाहिये !


लक्सर जंक्शन । पेड़ की छाँव तले एक बंजारा परिवार

ज़रा और क़रीब से देखिये इनकी गृहस्थी .....और चेहरे की ख़ुशी भी ........ 

बंजारों का स्नानघर

ऊपर आग उगलता सूरज, नीचे तपती धरती.....पर पेट की आग में झोंकने को कुछ तो चाहिये न!

गरमी का उपहार ...रसीले-मीठे शहतूत  ....कुछ तो आग बुझेगी इनसे भी

रविवार, 29 अप्रैल 2012

चलिये, कुछ तीर्थाटन हो जाय...

चलिये, चलते हैं नानक मत्ता .....रुद्रपुर से पीलीभीत की ओर मात्र एक घण्टे की दूरी पर स्थित है सिख गुरु नानक साहब का यह गुरुद्वारा


पूरे देश से आने वाले सिख तीर्थयात्रियों का स्वप्न है यह गुरुद्वारा जिसकी भव्यता देखते ही बनती है।  संगमरमर निर्मित इस गुरुद्वारे के मुख्य द्वार की मेहराबों पर की गयी कार्विंग का अलग ही आकर्षण है ।


रात में संगमरमर की यह इमारत और भी निखर उठती है.....ख़ासकर तब और भी जब चाँद अपने पूरे शबाब पर हो । चलिये अन्दर चलते हैं ....

दिव्यता...भव्यता....और शांति का समागम
गुरुद्वारे के मुख्य भवन के पीछे पहँचते ही लगता है जैसे किसी महल में आ गये हों। मध्य में एक बड़ा एवं पक्का सरोवर है..... जिसके चारो ओर दीर्घ गलियारे वाले बृहद प्रकोष्ठ हैं ......जिनमें तीर्थयात्रियों के ठहरने की व्यवस्था के अतिरिक्त दाहिनी ओर के भवन में एक बृहद चित्र प्रदर्शिनी है .....जिसमें सिख गुरुओं, राजाओं एवम भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले सिख वीरों के चित्र लगे हैं।
सरोवर में निवासरत हैं विभिन्न निर्भय मत्स्य परिवार। जल इतना स्वच्छ कि लहरों से परावर्तित होकर बनने वाले प्रकाश के वलय स्पष्ट देखे जा सकते हैं । चित्र रात के अन्धेरे में लिया गया है।  

नानकमत्ता के समीप ही है विशाल जलागार नानकसागर

और चलते चलते शिवस्वरूप की टिप्पणी....
यदि किसी गरीब के पास सीज़ेरियन ऑपरेशन के लिये पैसे न हों तो गर्भिणी को उत्तरप्रदेश की सड़कों पर मात्र दो किलोमीटर की यात्रा करा देना पर्याप्त होगा।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

चौपाल की चखचख ....२

 यह कैसी देश भक्ति ?

मैं घुमा फिरा कर नहीं कहूँगा।  एक लम्बे समय से ब्लॉग जगत में शीतयुद्ध चल रहा है। प्रतीक्षा थी कि सभी लोग तो देशभक्त हैं ..आपसी समझ और सहनशीलता से सब कुछ ठीक हो जाएगा। ..पर मैं दुखी हूँ....ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। 
मैं बात कर रहा हूँ हमारी बिटिया रानी दिव्या, अनुज अनुराग, और दिव्या के प्रबल समर्थक दिवस जी की। 
कष्टपूर्वक कहना पड़ रहा है कि हम सब आपसी लड़ाई में अपनी रचनात्मक ऊर्जा नष्ट करने में लगे हुए हैं। आश्चर्य तो यह है कि सभी लोग अपने-अपने क्षेत्र में ईमानदार हैं और राष्ट्र के उत्थान के लिए चिंतित हैं। इन तीनो के राष्ट्र प्रेम पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। तीनो ही लोग भारत को आदर्श की ऊँचाइयों पर प्रतिष्ठित और पूरी तरह आत्मनिर्भर देखना चाहते हैं। फिर क्या कारण है कि ये लोग अपने उद्देश्य से विचलित होकर आपसी युद्ध में ही अपनी रचनात्मक ऊर्जा जाया करने में लगे हुए हैं?
विदेशियों के आक्रमण से पूर्व भारत के राजघरानों के आतंरिक और बाह्य संघर्षों ने उनकी शक्ति और बुद्धि को कुंठित कर दिया था। राजा आम्भिदेव को विदेशियों के भारत में स्थापित होने वाले शासन से कोई आपत्ति नहीं थी। उन्होंने यवनों को अपने राज्य में से होकर आगे जाने का मार्ग दे दिया... कोउ नृप होय हमें का हानी....। देशी राजाओं की आतंरिक कलह ने  विदेशियों को बारम्बार भारत आने के लिए अनुकूल अवसर उपलब्ध करवाए..परिणामतः भारत को एक लम्बे समय तक न केवल पराधीन होना पड़ा अपितु अपने सांस्कृतिक और वैज्ञानिक गौरव से भी वंचित हो जाना पड़ा।
भारत की वर्त्तमान राजनीति अत्यंत निराशाजनक है, औद्योगिक घराने व्यक्तिगत समृद्धि के लिए सत्ता को अपनी उँगलियों पर नचा रहे हैं, आमजनता किसी चमत्कार की आशा में है और किसी भी अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहती, प्रबुद्धवर्ग एक मत नहीं हो पा रहा... और आपसी संघर्षों में लीन है। यह परिदृश्य है वर्त्तमान भारत का।
मैं बारम्बार कहता हूँ कि इस तरह तो हम कबीला संस्कृति  की ओर बढ़ते जा रहे हैं...हर कबीले का अपना एक अलग मत ..एक अलग संविधान .. अलग भाषा  .. अलग नीति और रीति ....सबकुछ अलग ...। इस सब के बीच में देश कहाँ है? 
ब्लॉग लेखन में मुद्दों से निकलकर व्यक्तिगत दोषारोपण और आरोप-प्रत्यारोप के जाल से आखिर कब निकलेंगे हम ? जब हम समूह से छिटककर व्यक्ति पर आ जाते हैं तो समाज और राष्ट्र की अवधारणा समाप्त हो जाती है ...और तब अपने मूल उद्देश्य से भटकने में देर नहीं लगती हमें। क्या हम केवल मुद्दों पर ही चर्चा नहीं कर सकते ? बच्चों की तरह आपस में लड़कर हम किस आदर्श को स्थापित कर रहे हैं? ...और क्या जिस क्रान्ति की बात हम करते हैं वह इस तरह संभव हो सकेगी? अरे हम तो पूरी वसुधा को परिवार मानने का आदर्श लेकर चले थे .....और हो क्या रहा है? कहाँ है कुटुंब का प्रेम और वैसी सहनशीलता ? 
नहीं....मैं दुखी हूँ ...बहुत दुखी हूँ .... जब हम देश के लोगों से ही प्रेम नहीं कर सकते तो देश प्रेम का क्या अर्थ है? 
समूह में मतवैषम्यता स्वाभाविक है किन्तु आगे बढ़ने के लिए एकमत होना भी आवश्यक है। अंतरजाल पर होने वाले सारे क्रियाकलाप वैश्विक होते हैं ...किन्तु क्या उनका स्तर भी वैश्विक बना पा रहे हैं हम ? हमें अंतर्जाल के इस विश्वमंच पर अपनी दुर्बलताओं का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये।  क्या हम भारतीय इतिहास के काले अध्यायों की पुनरावृत्ति किये बिना शांत नहीं होने वाले? 
मेरी विनम्र करवद्ध प्रार्थना है सभी ध्रुवों से कि वे अवधारणाओं के विरोध को व्यक्तिगत विरोध न बनायें। शालीन भाषा के प्रयोग से लोगों के दिल जीते जा सकते हैं ....और दूसरे का सम्मान करके हम अपने सम्मान के बीज बो सकते हैं। ध्यान रहे हमारा लक्ष्य भारतीय गौरव की पुनर्स्थापना है ...इसलिये हमारा आचरण भी तदनुकूल होना ही चाहिये। 
हम आशा करते हैं कि अब कोई विवाद नहीं होगा। तीनों को मेरा आशीर्वाद ...शुभकामनायें...कल्याणमस्तु ।

सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुःख माप्नुयात ॥            
   

चौपाल की चखचख ...१

यह कैसा राष्ट्र प्रेम ?

बस्तर के दक्षिणी भाग में स्थित नव निर्मित जिला सुकमा के कलेक्टर एलेक्स मेनन को दो दिन पूर्व ग्राम सुराज अभियान की एक सभा में से नक्सलियों ने अगवा कर लिया। नक्सलियों ने उनके दो अंगरक्षकों की ह्त्या भी कर दी।  भारतीय प्रशासिक सेवा के युवा कलेक्टर मेनन बहुत ही समर्पित और कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी हैं। उनके विवाह को अभी एक माह भी पूरा नहीं हुआ है। प्रभावशील लोगों का अपहरण कर सरकार पर दबाव बनाना और अपनी नाजायज़ मांगों को मनवाना नक्सलियों की रणनीति का एक हिस्सा है। जगह-जगह लोगों ने मेनन की रिहाई के लिए स्वस्फूर्त प्रदर्शन किये और चर्च में उनकी सलामती के लिए प्रार्थनाएं कीं। बस्तर में ऐसी घटनाएँ आम हो चली हैं। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उग्रवादियों द्वारा महबूबा मुफ्ती की रिहाई के लिए सबसे पहले इस फार्मूले का सफल प्रयोग किया गया था। अब  यह एक कारगर फार्मूला बन गया है। इस पूरे घटना क्रम ने कुछ प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
१- नक्सली संगठन आदिवासी और सर्वहारा के हित और उत्थान  की बात करते हैं। उनके अनुसार उनके सारे अभियान देश में शोषित वर्ग के सर्वांगीण विकास के लिए चलाये जा रहे हैं। अर्थात उन्हें भारत से प्रेम है, जिसके लिए वे स्कूलों को बम से उड़ा देते हैं, सड़कें और अस्पताल नहीं बनाने देते, रेलें अपनी मर्जी से चलवाते हैं, छोटे कर्मचारियों को भयभीत करते हैं जिससे वे शासकीय कार्य न कर सकें, व्यापारियों से भारी टैक्स बसूलते हैं, बर्बर सभाओं, जिन्हें वे अपनी जन अदालत कहते हैं, में लोगों की पीट-पीट कर निर्ममता से ह्त्या कर देते हैं और पूरे गाँव के लोगों को यह घटना देखने के लिए बाध्य करते हैं, किशोर वय बालक-बालिकाओं को नक्सली बनाने के लिए उठा ले जाते हैं .....
राष्ट्र प्रेम के ये तरीके आपको कितने पसंद आये? 
२- अमेरिका स्थित विश्व व्यापार केंद्र के भवन को धराशायी करने के बाद से वहाँ आतंकी हमले की पुनरावृत्ति  नहीं हुयी। भारत में ऐसी घटनाओं के अभ्यस्त हो चले हैं लोग। स्वतन्त्र भारत की सरकार इतनी पंगु क्यों है कि चीन द्वारा पोषित एक आयातित उग्र विचारधारा के लोग भारत के कुछ हिस्सों में अपनी एक समानांतर सरकार चला पाने में सक्षम हो पा रहे हैं? नक्सलियों द्वारा शासित क्षेत्र में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। क्या भारत का भविष्य तिब्बत की तरह होने वाला है? 
हमारी सरकार का यह राष्ट्र प्रेम आपको कैसा लगा ?
३- अब से पहले और भी कई सरकारी अधिकारियों का नक्सलियों द्वारा अपहरण किया जाता रहा है, किन्तु कभी चर्च द्वारा उनकी सलामती के लिए प्रार्थनाएं नहीं की गयीं। क्या राष्ट्र प्रेम के लिए किसी धर्म विशेष का होना आवश्यक है? क्या अब से पहले अपहृत किये गए लोग इस देश के नागरिक नहीं थे? और क्या उनकी सलामती के लिए चर्चों में प्रार्थनाएं नहीं की जानी चाहिए थीं?
धर्मंनिरपेक्ष देश में धार्मिकों का यह आंशिक राष्ट्रप्रेम किस अवधारणा का पोषक है?
४- अपने नागरिकों की सुरक्षा कर पाने में संप्रभुता संपन्न यह राष्ट्र कितना सफल हो पा रहा है? क्या कोई भी उग्रवादी संगठन सरकारों को इसी तरह ब्लैकमेल करता रहेगा ? 
क्या यह देश एक बार फिर विदेशी आततायियों के लिए निर्विरोध आमंत्रण की पृष्ठभूमि तैयार करने लगा है?  
   

रविवार, 22 अप्रैल 2012

सुबह-सुबह जंगल की सैर

आज रविवार है सो सूरज निकलते ही हम तो चल दिये जंगल की ओर। आप पूछेंगे कि सूरज निकलने पर ही क्यों, ब्राह्ममुहूर्त में क्यों नहीं ? तो भइया हम बता दें आपको कि सूर्योदय से पूर्व भालू, चीतल, तेन्दुआ आदि जल की तलाश में मानव बस्तियों के पास तक चले आते हैं। आदमी ने वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास और भोजन पर अधिकार कर लिया है शायद इसीलिये मानुष को देखते ही भालू दादा हो जाते हैं कुपित और कर देते हैं उनपर हमला। अब उनसे पंगा कौन ले .....तो हमने इसीलिये सूर्योदय तक की प्रतीक्षा कर लेने में ही भलाई समझी अपनी ।   
भालू तो मिले नहीं लम्बी पूँछ वाले काले बन्दर ज़रूर मिल गये

पिछली बार हमने प्रियाल(चार या चिरौंजी) के पुष्प दिखाये थे आपको। वे पुष्प अब खट्टे/मीठे प्रियाल में बदलते जा रहे हैं। प्रियाल के कच्चे फलों का रंग हरा होता है और स्वाद बहुत खट्टा ....
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प्रियाल के फल तो लग गये किंतु इनपर पहला अधिकार जिनका है उनसे कुछ बच पाये तब तो मिले आपको। ये देखिये खाये कम तोड़कर फेके ज्यादा.....और कौन! वही..जिनसे ऊपर भेंट हो चुकी है आपकी..
...
प्रियाल के पके फल काले होते हैं और मीठे इतने कि क्रिमि बहुत ज़ल्दी लग जाते हैं। मीठा फल खाने के बाद बेर की तरह कठोर आवरण वाला बीज मिलता है जिसे तोड़ने से चिरौंजी का वह स्वरूप सामने आता है जिससे आप सब सुपरिचित हैं।

कच्चा काजू पक्का काजू, डाल-डाल पर छाया काजू


फल के नीचे कठोर आवरण और दाहक तेल युक्त काजू है जिसे भून कर ही खाने योग्य बनाया जाता है। किंतु ऊपर पीले, स्पंजी और मधुर रस से भरे सुगन्धित फलों को चूसकर खाया जा सकता है। इनकी सुगन्ध बहुत अच्छी होती है।   

लो जी! झुमके पहन लिये अमलतास ने........कैसे लगे आपको?

आरग्वध यानी आपका अमलतास(Casia fistula) जंगल की शान तो है ही कई रोगों की औषधि भी है जैसे कि ज्वर,भगन्दर,मलविबन्ध(Constipation) आदि

 शिवप्रियम बिल्व पत्रम बिल्व फलम च ...
पर बेल ही क्यों?
शिव ने हलाहल पान किया था, और बेल के पत्र विषघ्न होते हैं। शिव के पुत्र लम्बोदर गणेश जी को कैथा और जामुन पसन्द था, भक्तों ने बेसन के लड्डू खिला-खिला कर डायबिटीज कर दी उन्हें तो वैद्य जी ने कैथा और जामुन के साथ बेल पत्र स्वरस भी पीने के लिये कहा उनसे। बेल पत्र एंटीडायबिटिक भी हैं।
बेल के कच्चे फलों का गूदा क्रॉनिक डिसेंट्री की औषधि के लिये सुविख्यात है। "विल्वावलेह"  नाम से इसकी औषधि मेडिकल स्टोर में उपलब्ध है।   


भीनी ख़ुश्बू और ख़ूबसूरत फूल वाले इस वृक्ष से अपरिचित हूँ मैं, आपको पता हो तो बताइये न!



बुधवार, 18 अप्रैल 2012

मेनका बनने की प्रतिस्पर्धा

फेस बुक पर
फेस टु फेस हो रहे
ख़ूबसूरत, मासूम भारतीय चेहरे,
आभिजात्य परिवारों के रक्तांश...
सनातन संस्कृति की वर्जनाओं को तोड़ते
पश्चिम हो चले हैं।  

मेनका बनने की प्रतिस्पर्धा में
ये कामुक लड़कियाँ
अपनी-अपनी खिड़कियों से झाँकती
आमंत्रित करती हैं
शोहदों, लुच्चों, लफंगों और कामी शूकरों को
अपने वाल-पेपर पर। 
वे आते हैं
झुण्ड के झुण्ड
मंडराते रहते हैं
भूखे गिद्धों की तरह,
मांस खाने को आतुर
नारी शरीर के कुछ विशेष अंगों का।
आते ही
छिछिया कर बिखेरने लगते हैं
कुछ ध्वनियाँ और चित्र उगलते
पाशविक-काम के कुछ शब्द।

कोठों जैसे दृश्य
तैरते हैं फेस बुक पर
मासूम से चेहरों की कामेच्छा
संतुष्ट हो पा रही है
या और भी उद्दाम
कौन जाने !
हमें तो केवल
इतना ही पता है
कि रचे जा रहे हैं
वात्स्यायन के नहीं
भटकते कामप्रेत के
नए कामसूत्र।
भोले और मासूम चेहरे वाली
ख़ूबसूरत लड़कियाँ,
जो आने वाले समय में
हमारे-आपके घरों में आयेंगी
बहू बनकर
अभ्यास करने लगी हैं
अभी से
बहू बाज़ार का।
हमने भी
आपकी ही तरह
आँखें बंद कर ली हैं अपनी।
हुंह..........!
मेरी लड़की नहीं होगी
इस फेसबुकिया
कमाठीपुरा की गलियों में। 
होगी.......कोइ कालगर्ल टाइप की।

कोई हमें बेशर्म न कहे
इसलिए
शुतुर मुर्गियाना ध्यान में
लीन हो चले हैं हम सब,
ईश्वर से यह मनाते हुए
कि हे भगवान! ये ख़ुशफ़हमी
ग़लतफ़हमी न निकले कहीं
वरना ये घर
कोठा बन जाएगा
जीते जी हमारे।

     






   

चर्चा में हैं कृपा बरसाने वाले बाबा

इंदरसिंह नामधारी के साले साहब चर्चा में हैं, क्यों न हों, उनकी सालाना आय २३८ करोड़ रुपये जो है। वे इससे मंदिर बनवाना चाहते हैं ताकि उनके बाद भी उनकी आत्मा मंदिर में विराजमान रहे और लोगों पर कृपा बरसाती रहे। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि केवल एक साल की कमाई से मंदिर बनेगा या पूरी ज़िंदगी की कमाई से, और केवल एक मंदिर बनेगा या पूरे देश में बहुत सारे? ( एक बात यह भी ध्यातव्य है कि भारतीय आर्ष परम्परा में लोगों ने अपने नाम को अमर करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किये, आज तो लोग मरने के बाद अपनी मूर्ति भी मंदिर में रखकर पुजवाना चाहते हैं। ईश्वर बनने के लिए कितना लालायित है मनुष्य !.....निर्लज्जता की सीमा तक )   

निर्मल बाबा अपनी कृपा बरसाने वाले टी.वी. कार्यक्रमों के विज्ञापनों द्वारा प्रचार करते हैं, कृपा बरसाने के लिए प्रति व्यक्ति दो हज़ार रुपये प्रवेश शुल्क लेते हैं जिसका वे आयकर भी चुकाते हैं, और कृपा बरस जाने के बाद सम्बंधित की आय का दस प्रतिशत दान भी प्राप्त करते हैं। 
निर्मल बाबा बड़े ही सहज तरीके से कृपा बरसाते हैं जैसे कि चटनी, समोसा, ब्रेड, काला पर्स, कुत्ते की टेढ़ी पूंछ, केला, अंडा आदि के माध्यम से। लोगों को ये सहज तरीके बड़े ही लुभावने लगते हैं। एक पढीलिखी महिला ने तर्क दिया, कहा कि यज्ञ और मन्त्र के पाखण्ड की अपेक्षा ये तरीके पाखण्ड रहित और निश्चयात्मक रूप से लाभकारी हैं। 

पूरे देश के लोग उनके समागमों में आते हैं, अधिकाँश लोग पहले से ही कृपा पाए हुए होते हैं, वे सिर्फ इस कृपा के कांटीन्यूशन की विनती करने आते हैं। कई लोग भावुक होकर रोने लगते हैं, कइयों के गले अश्रु से अवरुद्ध हो जाते हैं, क्योंकि केवल और केवल बाबा की कृपा के कारण उनकी बेटी की शादी हो जाती है या उनका प्रमोशन हो जाता है, या उनका लड़का अच्छे नंबरों से परीक्षा में पास हो जाता है, या नौकरी मिल जाती है , या उनका व्यापार अच्छी कमाई देने लगता है........। दैनिक जीवन के कई कार्य जो पुरुषार्थ की अपेक्षा करते हैं बिना पुरुषार्थ किये ही मात्र बाबा की कृपा से सम्पन्न हो जाते हैं। बाबा अन्तर्यामी हैं और चमत्कार के द्वारा कृपा बरसा देने की विशेषज्ञता से लबालब हैं -ऐसा दृढ विश्वास बाबा के भक्तों को है। दूसरे शब्दों में कहें तो बाबा ईश्वर के अवतार हैं जो केवल अपने भक्तों पर ही कृपा बरसाते हैं।  देश के भ्रष्टाचार, घोटालों, बलात्कारों, बिकती हुई न्याय व्यवस्था, घूसखोरी आदि पापों से निरपेक्ष बाबा की कृपा सभी पर बरसती रहती है क्योंकि बाबा समदर्शी हैं। ईश्वर को समदर्शी होना ही चाहिए।    

कुछ लोगों को आपत्ति है कि ऐसे बाबा धर्म के मार्ग को विकृत कर रहे हैं और अपरिपक्व बुद्धि के लोगों का भावनात्मक शोषण करके उन्हें ठग रहे हैं। वे केवल आर्थिक समृद्धि की बात करते हैं। निर्मल बाबा मन को निर्मल करने के लिए कोई साधना मार्ग नहीं बताते। साधना मार्ग अति कठिन जो हैं, कठिनता कब किसे भाई है?

मुझसे पूछा जाय तो मैं निर्मल बाबा को न तो अवतार मानता हूँ, न कोई चमत्कारी। वे एक चालाक व्यक्ति हैं,  जिसे बिना काम किये नाम चाहिए और दाम भी। उनकी अतिमहत्वाकांक्षा को भारत की अकर्मण्य और चमत्कारप्रिय जनता की भौतिक लोलुपता ने उर्वर भूमि उपलब्ध करा दी है...और निर्मल सिंह नरूला का यह चमत्कार का व्यापार चल निकला है।
अब इस पूरे व्यापार को लेकर चर्चा हो रही है बाज़ार में। इसका तात्कालिक प्रभाव तो यह पडा है कि तीसरी आँख की शक्ति प्राप्त निर्मल सिंह नरूला की आय में भारी गिरावट आ गयी है और उनके अवतारत्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पर उनके समर्थक हतोत्साहित नहीं हैं, बाबा के भक्त उन्हें अवतार सिद्ध करके ही मानेंगे, दुनिया की कोई ताकत उन्हें ऐसा करने से रोक नहीं सकेगी। भ्रष्ट तरीकों से अर्जित संपत्ति के ज़खीरे हैं भारत में जो किसी को भी अवतार सिद्ध कर देने में समर्थ हैं।

मुझे किसी डाकू की अपेक्षा उन स्वेच्छया लुट जाने वाले तर्कशून्य लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जिनमें कई लोग उच्चशिक्षित और उच्च पदाधिकारी भी हैं। भौतिक उपलब्धियों के लिए पुरुषार्थ करने की अपेक्षा चमत्कार चाहने वाले ये अकर्मण्य लोग कितने धार्मिक हो सकते हैं यह देश के शेष समाज को तय करना है। जी हाँ! तय करना ही होगा...समाज की हर हलचल समाज की दिशा तय करती है, समाज का मानसिक स्वास्थ्य तय करती है, समाज का भविष्य तय करती है और उस समाज की सभ्यता को इंगित करती है। बाबा की कृपा की वारिश चाहने वाले किसी भी व्यक्ति ने देश से भ्रष्टाचार की समाप्ति की ऐषणा नहीं की अभी तक, किसी घोटालेवाज को दंड दिए जाने की चाहना नहीं की, ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने की चाहना नहीं की .......हर किसी को केवल और केवल अपने स्वार्थ की चाहना है। यह कैसा आध्यात्म है जो केवल पैसे की बात करता है? यह कैसा धर्म है जो किसी शोषण की बात नहीं करता? यह कैसा समागम है जिसमें किसी भी बात का कोई तर्क ढूंढें भी नहीं मिल पाता? ये कैसे उच्च शिक्षित भक्त हैं जो आस्था के नाम पर विज्ञान के तत्वों को सिरे से खारिज कर देते हैं?

मैं निर्मल बाबा के तौर तरीकों से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इसलिए इस पूरे व्यापार की कटु निंदा करता हूँ। इस निंदा के लिए मैं चमत्कारी निर्मल बाबा से मुझे कठोर श्राप देने के लिए अनुरोध भी करता हूँ। निर्मल जी! अपनी तीसरी आँख खोलिए, छठी इन्द्रिय को जागृत करिए और मुझे अपनी निंदा के लिए श्राप दीजिये।