मंगलवार, 30 नवंबर 2010

ठहरी हुयी ज्यों ओस सी

क्या हो तुम ...कैसे कहूं
वह गंध शब्दों में कहाँ !
हूँ, खो गया पाकर तुम्हें 
है साक्ष्य मेरे नयनों में.
  
नख से शिखर तक हो ग़ज़ल 
हौले से थिरकीं नयनों में, 
सरगम उमड़ता जा रहा  
आ भर लूं अपने नयनों में.

कितनी गहरी झील को 
ले घूमती हो नयनों में, 
कहीं फिसल कोई गिर न जाए 
डूब जाए नयनों में.

पांखुरी की कोर पर 
ठहरी हुयी ज्यों ओस सी, 
रूप तेरा ढल न जाए 
आ भर लूं अपने नयनों में.

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