बुधवार, 29 सितंबर 2010

एक बच्चा प्यारा सा ....

वह अभी मात्र दो वर्ष का है.और सेरिब्रल पैल्सी से पीड़ित है. उसकी माँ बड़ी आशा से मेरे पास लेकर आयी थी उसे .जब मैंने उससे कहा कि हम इसके लिए कुछ ख़ास नहीं कर सकेंगे तो उसकी ममता आखों से फूट पडी. मैंने कुछ दवाइयां लिखकर दे दीं. पर मैं जानता हूँ वह ठीक नहीं हो सकेगा. जाते समय उसकी निराशा थकी हुयी चाल  में स्पष्ट देखी जा सकती थी. इस बच्चे को वह कब तक अपनी छाती से लगाकर जी सकेगी ? उसे कठोर बनना होगा. किसी माँ के लिए यह कितना मुश्किल काम है. वह एक जीवित लाश से अधिक और कुछ नहीं था. उसके जाते ही मुझे भी अपनी आँखें  पोछनी पडीं. बच्चे के लिए सचमुच मुझे बहुत दुःख हुआ. काश ! ऐसे बच्चों के लिए कुछ भी किया जा सकना संभव हो पाता. चिकित्सा विज्ञान अभी भी कितना असहाय है ?
.

रविवार, 26 सितंबर 2010

अस्वीकृत किन्तु ग्राह्य

अन्धकार में पनपते उद्योग की 
एक छोटी सी
किन्तु
सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हूँ मैं 

सभ्यता की बाहों में खेलकर 
बढ़ा- पौढ़ा
गहरी-गहरी साँसे लेता
समाज के कचड़े को खाता-निगलता 
चलता-फिरता
एक जीवित उद्योग है यह 
जिसकी 
एक महत्वपूर्ण कड़ी हूँ -------- मैं. 

मेरे सर्वस्व की लागत पर स्थापित 
सबको
शुद्ध लाभ देने वाले
इस उद्योग से
न जाने कितनों का पेट पलता है
मेरे अस्तित्व की आड़ में .

उत्पाद ?
आपके शब्दों में -----आनंद
या भय मिश्रित आनंद का एक झोंका भर
या
शायद एक छलावा भर.

सह उत्पाद ?
इसे बताने से क्या लाभ -------
भला कौन ग्राहक होगा इसका
इसे तो मुझे ही पीना होता है
अंतिम साँसों तक
क्योंकि
आँखों के ठीक नीचे हैं होंठ 
इसलिए जैसे भी हो
पीना तो मुझे ही होगा न !

प्रदूषण ?
हाँ, क्यों नहीं !
उद्योग है तो प्रदूषण भी होगा ही
पर इससे किसी को क्या -----
कि अपसंस्कृति  का विषैला प्रदूषण
कितनों का जीवन तबाह कर देगा.
आप तो बस, 
यदि ग्राहक हैं ------
तो -------जो लेने आये हैं
लीजिये ----संतुष्ट होइए ------और ----
अपने घर जाइए.

उपभोक्ता ?
हूँ ---ऊँ ----ऊँ -----ऊँ ------
शायद आपको छोड़ कर 
शेष सभी
आम भी ----ख़ास भी ----

भविष्य ?
सभ्यता के उत्कर्ष के साथ-साथ ----
पल्लवित-पुष्पित होता रहेगा .--------
समाज की अंतिम साँसों तक
बिना किसी शर्म के .

अंतिम टिप्पणी ?
निंदा करते हैं सब इस उद्योग की
फिर भी ----
बनाए रखना चाहते हैं सब.
सारी निंदाओं के बाद भी ----
कोई बंद नहीं करना चाहता इसे
कोई भी नहीं.
बंद कर भी नहीं सकते
बहुतों की सहभागिता जो है.
बस,
यूँ समझ लीजिये
कि मैं -----अपना शरीर बेचती हूँ
और 
लोग ------अपनी आत्मा.
आपने ठीक समझा
मैं -----गणिका हूँ ----------
एक वर्ज़ना ----
सम्मानहीन  ----
अस्वीकृत ------
किन्तु ग्राह्य.




अस्वीकृत किन्तु ग्राह्य

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कश्मीर .... कितने दूर .... कितने पास ..



आज दिनांक -२१ सितम्बर के दैनिक भास्कर में गोपाल कृष्ण गांधी का लेख -कितने दूर कितने पास पढ़ा. उनकी यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि कश्मीर पर देश की जनता के बीच संवाद की प्रक्रिया प्रारम्भ होनी चाहिये. अभी तक हम कश्मीर पर सिर्फ अपने निर्णय देते आये हैं .....कश्मीर हमारा है ......यह भारत का अविभाज्य अंग है......आदि-आदि. किन्तु मुझे लगता है कि हमने कभी अपने आचरण से यह प्रदर्शित करने का प्रयास नहीं किया कि कश्मीर हमारा है और हम कश्मीर के हैं. हो सकता है कि कश्मीर की  छटपटाहट जिन्ना की छटपटाहट जैसी हो .....केवल कुछ लोगों की छटपटाहट भर. पर एक अहम् सवाल यह है कि हमने अभी तक कश्मीरियों से  कितनी मोहब्बत की  है ? और केवल कश्मीरी ही क्यों, पूर्वांचल के लोगों से भी हम कितने जुड़  सके हैं ? अब अगला सवाल यह है कि हम उनसे जुड़ें कैसे ? देखिये, देश के शेष  भागों  में भी मुसलमान  हिन्दुओं  के साथ  रह  रहे  हैं वहां ये समस्याएं नहीं हैं. ......क्योंकि हम सामाजिक तौर पर उनसे गहरे  जुड़े हुए हैं, और एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी हैं.जब तक हमारे सामाजिक सरोकार एक-दूसरे से नहीं जुड़ेंगे तब तक कश्मीरी हमें अपना नहीं समझ पाएंगे....और समझें भी आखिर क्यों ? हमें उन से नातेदारी  बनानी होगी और उन्हें अपने विश्वास में लेना होगा. सीमान्त प्रान्तों में हमारी घनिष्ठता बनाने का एक अच्छा और बहुत पुराना तरीका  है....शादी-ब्याह के सम्बन्ध बनाना. परस्पर शादी-ब्याह की नातेदारी हमें एक-दूसरे के करीब लाएगी ही. गरीबी-अमीरी बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है. सबसे बड़ी चीज है पारस्परिक प्रेम और भाई-चारा. अपनत्व दूर-दूर से नहीं पैदा होता....करीब आना होगा.....एक-दूसरे के दुःख-सुख में पूरी शिद्दत के साथ सहभागी बनना होगा. राज-तंत्र के जमाने में राजा लोग दूर-दूर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते थे इसके पीछे कूटनीतिक विषय  भी एक महत्वपूर्ण  कारण हुआ करता था . बहरहाल पिछले कुछ महीनों से कश्मीर में जो कुछ हो रहा है........पथराव, आगजनी, मौत का तांडव और इस सब पर सियासत  का नंगा खेल ....... वह अत्यंत दुखद है हम इन हालातों में खुद अपने को रख कर देखें तो दर्द का अंदाजा हो जाएगा. दैनिक भास्कर की टीम नें कर्फ्यूग्रस्त कश्मीर का दर्दनाक चित्र खिंच कर शेष भारत को कश्मीर के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है. और इस नेक काम के लिए उनकी पूरी टीम धन्यवाद की पात्र है. शायद    इसी बहाने हम नॅशनल  इंटीग्रेशन की तरफ सही मायनों में कुछ कदम बढ़ सकें. अभी तो  हम कश्मीरी भाइयों के लिए चिंतित हैं.वहां के हालात जल्दी से जल्दी सुधरें और बेहतर हों इसके लिए हम इश्वर से प्रार्थना करते हैं.     

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

कश्मीर

कश्मीर के भाइओ और बहनों ! पिछले कुछ महीनों से घाटी में जो कुछ हो रहा है वह पीड़ादायक है , संकट की इस घड़ी में हम पूरी तरह आपके साथ हैं. आप न  कभी अकेले थे. न अभी हैं और न  कभी अकेले रहेंगे .आपके दुःख में हम पूरी तरह सहभागी हैं. 

बुधवार, 22 सितंबर 2010

सही-सलामत





सुबह
सोकर उठा, तो देखा
मैं सलामत हूँ ......और मेरा घर भी
बाज़ार से
सब्जी भी लेकर आ गया घर
पर कुछ नहीं हुआ.
फिर ...... दफ्तर में भी गुज़र गया .........पूरा दिन
बिना किसी हादसे के.
शाम को बच्चे भी आ गए .........स्कूल से  वापस
सही सलामत .
ताज्जुब है !
एक दिन और गुज़र गया सही-सलामत,
किसी ने 
बदला नहीं लिया मुझसे.

क्या बताऊँ !
नेक दिल बना था,
जान का दुश्मन बन गया ज़माना.
तरक्की किसे नहीं है पसंद ?
पर क्या करूँ !
चाह कर भी नहीं बन पाया 
चापलूस और बेईमान.
उल्टे, मेरे ही पीछे पड गए
सरकारी नुमाइंदे.
डर  बना रहता है
न जाने कब ....... 
क्या हो जाए ?
दूर-दर्शन पर  
हादसाईं  ख़बरें देख-देख कर 
दिल
अब बैठा .........कि तब बैठा होने लगता है
दहशत भरा
एक-एक लम्हा गुज़रता है
किसी अनहोनी के इंतज़ार में,
कहीं आज ..........मेरी बारी तो नहीं !

उन्नीस सौ सैंतालिस के बाद से
आज़ादी 
निरंतर  बढती जा रही  है मेरे देश  में 
सिर्फ गुनाहों के लिए .
शराफत और इंसानियत ......... 
जिन्हें घायल कर गए थे अंग्रेज़
आज ...........उन्हें मार-मार कर 
रोज़ दफ़न कर रहे हैं 
हम ................हिन्दुस्तानी.
ऐ चक्रधारी  ! 
अभी कितनी प्रतीक्षा और करोगे  ..........
अधर्म के बढ़ने की ?  
अब तो आंसू भी सूख गए हैं 
और सूरज 
न जाने कब का डूब चुका है .

रविवार, 19 सितंबर 2010

EXISTENCE

लोग 
मुग्ध होकर देख रहे हैं
कि कैसे
पाषाणों के वक्ष को चीरकर
बाहर आ गई है 
वो
अपने पूरे अस्तित्व के साथ.
धन्य है उसकी जिजीविषा.
पूरे उमंग के साथ आगे बढती है 
वो 
मार्ग की बाधाओं से जूझती
बढती ही जाती है 
आगे ....और आगे .......और-और आगे ...
जैसे कि अब रुकेगी ही नहीं 
शांत होगी, तो बस ......समुद्र में मिलकर ही.
पर .....
हर पहाड़ी नदी के भाग्य में ऐसा कहाँ ?
धरती के मुक्त .....विस्तृत आँगन तक आते-आते
अपनी ही रेत में फंसकर रह गई है 
वो ......
गंगा की तरह ....यमुना की तरह ........
लोग
चिंतित हो उठे हैं
कि कहीं  यह भी तो सरस्वती कि तरह ......
नहीं-नहीं .....बचाना ही होगा इसे ....
सबको तृप्त करती ....सृजन करती ......, आगे बढती 
यह
मात्र कोई सरिता, कविता, या ............गीता ही नहीं 
नारी की अस्मिता भी है.
आप चाहें 
तो इसे कुछ और भी नाम दे सकते हैं.
में तो इसे ..........''अन्वेषिका''  कहता हूँ.

बुधवार, 8 सितंबर 2010

वो ज़ालिम.......

कुछ  ऐसी बातें होती हैं, के भाषा चुप हो जाती है.
तब ख़ामोशी  ही  चुपके से सब, करने बयाँ आ जाती है.


कुछ ख़ास इबारत है इसकी, इसका भी इल्म ज़रूरी है.
गर पढ़ना इसे नहीं आता, तो हर तालीम अधूरी है.


हर बार पहल करते हम ही, ये भी तो हमारी   शराफत है.
इस पर भी वो खामोश रहें, तो ज़ाहिर है ये बगावत है.


आज - कल वो न जाने क्यों, बहुत मसरुफ रहते हैं.
पता हमको चला है, वो दिखावा भर ही करते हैं.


जो बोले बोल ही मीठे, तो समझो वो परिंदे हैं.
जो सब रस घोलता जाए, उसी के हम दीवाने हैं.


बहा कर खून वो ज़ालिम, ख़ुदा की बात करते हैं.
ख़ुदा ऐलान करता है, के वो वहशी दरिन्दे हैं.

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

Silence is not silent ......in the moonlight.....

सर्दियों  की रात की ये खामोशी...... और........ 
खोया - खोया  सा चाँद.
नहीं - नहीं .......
चुप नहीं है ......पूरी कायनात में पसरी ये 'खामोशी' .
सच......
इसने सब कुछ बता दिया है मुझे 
कि अभी तक ख़त्म नहीं हुई है तेरी तलाश. 
भोले  चाँद!
सुना है कि तू भी रोता रहा है रात भर.
देख , झूठ मत बोल,
मैंने  देखे  हैं 
जुही  की कलियों  पर ठहरे  ......
तेरे  आंसू ...
कलिओं  ने  रात भर  समेटा  है उन्हें 
चलो  न  !
आज  रात हम  दोनों 
मिल  कर  तलाशें  
अपनी -अपनी  मंजिलें 
शायद  मिल  जाएँ .


गुरुवार, 2 सितंबर 2010

In search of evidences of Aaryan excellency.

       यदि मैं  कहूँ  कि आम भारतीय विरोधाभासों के बीच जीने का अभ्यस्त है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी .एक ओर तो हम आध्यात्म कि बात करते हैं दूसरी ओर अनुचित तरीके से उपलब्धियां हासिल करने में भी पीछे नहीं रहना चाहते. कम से कम परिश्रम में अधिक से अधिक लाभ की प्रवृत्ति ने हमें मानव से दानव बना दिया है. पूजा-पाठ-मंदिर-कथा-भागवत.......इस सबके बाद भी पाप में प्रवृत्त होने  से अपने को बचा नहीं पा रहे हैं हम.
        एक दूसरे से श्रेष्ठ  दिखना  मानव समाज का विशिष्ट गुण है. इसके पीछे मूल प्रवृत्ति प्रतिस्पर्धा की है.लोगों ने श्रेष्ठता प्रदर्शन के कई तरीके खोज लिए हैं.हिटलर स्वयं को आर्य  कहता था,  हम भी अपने को आर्य कहते हैं. हम मिथ्या अभिमान के साथ जीने के अभ्यस्त हो गए हैं जिसके परिणाम स्वरूप हमारे चारो ओर  कई विषमताओं ने भी जन्म ले लिया है.
        आपकी तरह हमें भी अपनी श्रेष्ठता पर गर्व है. इसीलिए मैंने अपने समाज में, अपने चारो और इस श्रेष्ठता को खोजने का बहुत प्रयास किया पर असफल रहा. वैदिक ज्ञान की धरोहर की बात को यदि अभी छोड़ दिया जाय तो हमारे शेष इतिहास में गर्व करने जैसी कोई बात मुझे कहीं नहीं दिखी. भारतीय दर्शन एवं आध्यात्म का व्यावहारिक धरातल अत्यंत निराशा जनक है. हमारे समाज में विरोधाभासों की भरमार है. भारत में मंदिरों की संख्या, धार्मिक उत्सवों एवं राष्ट्र व्यापी भ्रष्टाचार के बीच कहीं कोई संतुलन या नियंत्रण जैसी स्थिति देखने को नहीं मिलती. आइये हम अपने को गर्व करने के योग्य बनाने का प्रयास तो करें.....मूल्यों को स्थापित करने और भ्रष्टाचार के विरोध में एक अभियान छेड़ कर ही हम आर्य कहलाने के योग्य बन सकेंगे.

Agony........

अपनी-अपनी पीड़ा के पहाड़ ढोते लोगों से भरा नगर,
नगरों से भरा देश
और देशों से भरी यह धरती......
स्वयं, कितनी बौनी है अपने सौर -मंडल में!
किन्तु पीड़ा का संसार.....
न जाने कितना विस्तृत है.
धरती-धरती भर पीड़ा ले कर
न जाने कितने सौर-मंडल समाये हैं
हमारी अपनी आकाश-गंगा में.
ऐसी असंख्य आकाश-गंगाओं की पीडाओं से
कितनी बौनी है तेरी पीड़ा,
चल उठ,
अब कितने आंसू और बहायेगा
अपनी बौनी पीड़ा पर!
सबकी पीड़ा गले लगा ले,
कुछ प्रश्नों के उत्तर दे ले
फिर देख
इस अनंत ब्रह्माण्ड में
तेरा बौना अस्तित्व
कितना महत्त्वपूर्ण है.