बुधवार, 4 अगस्त 2010

वसुधैव कुटुम्बकम्


इस घुटे-घुटे से मौसम में
यूँ जी पाओगे कब तक !
जब मनुज स्वयं विस्फोटक बनकर
रक्त बहाए नगर-नगर
तुम राज-धर्म की आस लगाये
यूँ बाट निहारोगे कब तक ?
नहीं बदलता हृदय किसी भी
राजदंड की धारा से
यह तो केवल परिवर्तित होगा
निष्कपट प्रेम की गंगा से
चलो,
'मितान' बना लें सबको
'गैर' न कोई कहलाये
बस, बहे प्रेम की धार, घृणा का
ठौर न कोई रह जाये।
महाप्रसाद के इस अवसर को तुम
कहीं भूल से भुला न देना
पलक-पांवड़े बिछा रखूँगा
तुम कैसे भी कर के आ जाना

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस घुटे-घुटे से मौसम में

    यूँ जी पाओगे कब तक !

    जब मनुज स्वयं विस्फोटक बनकर

    रक्त बहाए नगर-नगर


    Kaushalendra ji.......ye lines pr ke lgaaa.kahin..aap mujhse to nhi keh rhe .....hmmmm...bahut...gehrii line likh daali aapne......
    aap vishwaas nhi krenge is..commnet pe maine pure 5 mint..bitaaye....ye lines prii..fir khamoshii sochne lgi....fir sochaa likhun...fir likhte likhte..fir khmaaoshi aade aa gyi.....
    hmm
    bahut achii rchnaa hui he...

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  2. Bujh-bujh ke jalne ki niyati hai.
    Jalne ko aatur deep hun main.
    Bas aag thodi chaahiye......
    Are! aap kahaan kho gain Joya ji.Yaadon se nikal kar baahar aaiye.
    Is ghute-ghute se mausam men.....Shabdon ne aapke man ko sparsh kiyaa- jaan kar achhaa lagaa.Likhanaa saarthak huaa. dhanyavaad!

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.