गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

“मैं बहुत प्रभावित हूँ कन्हैया के तर्कों से ......
वह कोई मामूली छात्र नहीं है, वह एक ऐसा कुशाग्र बुद्धि छात्र है जो जे.एन.यू. का स्कॉलर है और मात्र तीन हज़ाए रुपये मासिक वेतन पाने वाली एक साधारण सी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता का बेटा है ।”  

आजकल हम हमारे शहर के बुद्धिजीवियों को एक राजनीति निरपेक्ष मंच पर लाने के प्रयास में गलियों की ख़ाक छान रहे हैं । परिणाम बहुत चौंकाने वाले हैं किंतु हम निराश नहीं हैं । हमें विद्वानों के असली चेहरे से रू-ब-रू होने का नायाब अवसर मिला है । इतनी उम्र के बाद हम हमारे कवच और उसके भीतर सुरक्षित ज़िन्दग़ी के दयनीय पक्ष को देख पा रहे हैं । हमें वे चेहरे भी देखने को मिल रहे हैं जो बिना कवच के हैं और कन्हैया में देश का उज्ज्वल भविष्य देख पा रहे हैं । ऊपर दिया गया वक्तव्य एक राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक ने दिया है । ऐसे लोग पूरे राष्ट्र के लिये सम्माननीय होते हैं ।
हम ऐसे बुद्धिजीवियों से भी मिले जिनके लिये जे.एन.यू. प्रकरण पर चर्चा करना एक मूर्खतापूर्ण एवं अनावश्यक कार्य है क्योंकि इससे उनकी व्यक्तिगत सेहत पर ही बुरा असर पड़ेगा । वे इसे समय की बर्बादी मानते हैं ।
हम ऐसे बुद्धिजीवियों से भी मिले जिन्होंने जे.एन.यू. प्रकरण को एक ख़ास टी.वी. चैनल द्वारा “नकली सी.डी.” बनाकर जे.एन.यू. के स्कॉलर्स को बदनाम करने का षड्यंत्र घोषित किया । जब हमने पूछा कि क्या भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने का संकल्प लिया जाना उचित है तो उनका ज़वाब था –  “किसी भी छात्र ने ऐसा कोई नारा नहीं लगाया है, यह सब झूठा प्रचार है .... और फिर भारत का संविधान किसी को भी अपनी बात कहने का अधिकार देता है । किसी का विरोध करना राष्ट्रद्रोह नहीं होता ।”

मज़े की बात यह है कि जो लोग अपनी बात कहना अपना अधिकार मानते हैं वे ही लोग हमें हमारी बात शुरू करते ही “मनुवादी, परपरावादी और भगवावादी” कहकर हमें हिकारत की दृष्टि से देखने लगते हैं । वे केवल अपनी बात कहना चाहते हैं दूसरों की बात सुनना बिल्कुल भी नहीं चाहते । जब भारत को बर्बाद करने का संकल्प लेने वालों को हम राष्ट्रद्रोही कहते हैं तो वे तत्काल तोप चला देते हैं कि यह निर्णय करने का अधिकार आपको किसने दिया । किंतु यह तोप चलाते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि राष्ट्रद्रोही को देशभक्त घोषित करना भी एक निर्णय है जिसका उन्हें कोई अधिकार नहीं है ।

विचित्र वातावरण है देश का, जो हमें असहिष्णु कहते हैं वे स्वयं कितने उग्र और असहिष्णु हैं ! आज हमें ग्लानि हो रही है कि हम कैसे शिक्षकों के शिष्य रहे हैं !

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