गुरुवार, 10 मार्च 2016

राष्ट्रवाद की वैचारिक छिछियाहट

Lecture series on Nationalism – Prabhat Patnaik on “What it means to be National?” (09.03.2016)  # Stand with JNU
आज प्रभात पटनायक का भाषण सुना ...

राष्ट्रवाद पर बोलते हुये उन्होंने बताया कि भारतीय राष्ट्रवाद पश्चिमी उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया से उपजा राष्ट्रवाद है । आज का भारतीय राष्ट्रवाद पूँजीवाद का महिमामण्डन करता है, जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि भारत से भिन्न है ।
पटनायक जी मृत्युदण्ड के विरोधी हैं भले ही वह कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो । इस तरह उन्होंने वाम-आदर्शवाद के अनुरूप एक आमआदमी के मन में मानवता के रक्षक बनकर और जघन्य अपराधियों के मन में मुक्तिदाता बनकर अपनी बौद्धिक प्रतिभा की छाप छोड़ने का प्रयास किया है । वे राष्ट्रवाद को बीफ़ खाने और आतंकवादियों के समर्थन के मौलिक अधिकार से जोड़ने के पक्षधर नहीं हैं ।
वामपंथी एक बात बहुत दमदारी से कहते हैं –  “कुछ लोगों ने राष्ट्रवाद की अपनी परिभाषा बनायी है । उनकी बात और उनके सिद्धांतों को स्वीकार करना ही राष्ट्रवाद है और स्वीकार न करना ही राष्ट्रद्रोह है ।”

आज राष्ट्रवाद की कई परिभाषायें सामने आ रही हैं, और जिस रूप में आ रही हैं उससे यह आभास होने लगा है कि राष्ट्रवाद एक बहुत गन्दी बात हो गयी है, इतनी गन्दी कि अब एक ख़ूनी क्रांति होनी ही चाहिये
हमारा राष्ट्रवाद ... तुम्हारा राष्ट्रवाद ... उनका राष्ट्रवाद ...। भारत में कई राष्ट्रवाद आपस में युद्ध के लिये तैयार हैं । ईंटभट्टे पर काम करने वाला मज़दूर भकुआया खड़ा है ....यह राष्ट्रवाद क्या इतना ख़तरनाक मुद्दा है .... कि लोग इतने उत्तेजित हो रहे हैं !
वैचारिक छिछियाहट के साथ वामपंथी और उच्च शिक्षित जेनुयाई जनता से शिकायत कर रहे हैं ...देखो देखो ...मैं बीफ़ खाता हूँ तो ये मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं, मैं मृत्युदण्ड का विरोध करता हूँ तो ये भगवायी मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं, मैं पुलिस और सेना के जवानों से स्त्रियों के बलात्कार का विरोध करता हूँ तो ये फासीवादी लोग मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं, मैं बापू के हत्यारे की पूजा नहीं करता हूँ तो ये संघी मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं .... । क्या हमें बोलने की आज़ादी नहीं है ? क्या हम अपने दिल की सच्ची बात कहने का अधिकार नहीं रखते ?

संसद पर आक्रमण करने वाले और देश की सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले षड्यंत्रकारियों को दिये जाने वाले मृत्युदण्ड को मानवाधिकार का उल्लंघन मानने वाले किंतु युद्ध में होने वाली सैनिक हत्याओं पर मौन रहनेवालों को बुद्धिवादी माना जाय या बौद्धिकशूद्र !
वैश्विक समाज और न्याय की वकालत करने वाले लोग, जो झीरमघाटी में सैनिकों की नृशंस हत्या कर उनके शवों पर नृत्य करने वाले माओवादियों के विरोध में एक शब्द नहीं कहते, उनकी बौद्धिकता को क्या संज्ञा दी जाय ! ये लोग मृत्यु-मृत्यु में इतनी विभेदक दृष्टि क्यों रखते हैं ? क्या उन्हें सबसे पहले युद्धों के विरुद्ध ही नहीं खड़े होना चाहिये ?
भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में अपने पूर्व लेख मैं पहले भी कह चुका हूँ कि यह किसी प्रतिक्रिया का तात्कालिक परिणाम नहीं है, बल्कि “भारतीय राष्ट्रवाद अपने स्वाभाविक भौगोलिक विस्तार, विकसित सांस्कृतिक चेतना, भिन्न-भिन्न दार्शनिक सिद्धांतों की स्वीकार्यता, आध्यात्मिक चिंतन एवं उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रति सजगता को केन्द्र मान कर स्वाभाविकरूप में विकसित हुआ है । इस राष्ट्रवाद में सत्तालिप्सा का स्वार्थ नहीं अपितु वैचारिक विरोधाभासों के होते हुये भी एक स्वाभाविक जनचेतना है । इसमें अपने जीवनमूल्यों के प्रति स्वाभिमान है, लोककल्याण के प्रति निष्ठा की भावना है और अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति सम्मान का भाव है ।”
पटनायक जी ने हिटलर और गांधी के राष्ट्रवाद की चर्चा की । महोदय जी ! भारतीय राष्ट्रवाद हिटलर और गांधी से सहस्रों वर्ष पूर्व ही विकसित हो कर प्रतिष्ठित हो चुका था ।

आज मैं देश के सभी नागरिकों से ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लोगों से कहना चाहूँगा कि “एकांगी चिंतन” और “अर्धसत्य” बुद्धिवाद का वह संकट है जो सत्य और लोककल्याण की हत्या कर देता है । साम्यवाद एक ऐसा ही बुद्धिवाद है । इस लाल जादू से सावधान रहिये !  

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