सोमवार, 27 अप्रैल 2015

ये धरती नाराज़ है हमसे


कहीं निगलती
कहीं उगलती
कहीं भयभीत करती है
ये धरती
आज हमसे यूँ परिहास करती है ।
चिढ़ाते तो आये हैं
हम भी उसे जी भर
आज वह चिढ़कर हमें
जी भर चिढ़ाती है ।
ये धरती बहुत रोती रही
हमारे पाप के कारण
खीझ कर वह भी कभी
काली का रूप धरती है ।
संभल जाओ
अभी भी वक़्त है बाकी  
जीने दो धरती को भी   
न दो अब और विष उसको
कि हमारे लोभ के विष से

वह भी रोज मरती है ।  

2 टिप्‍पणियां:

  1. शरण्ये,श्री-सहचरी, तुम रेणुमयि परमा परम् हे
    महा करुणा रूपिणी धरिणी तुम्हें शत-कोटि वंदन .
    तुम कि जब अतिचार पर उद्धत मनुज स्वार्थांध होकर
    लालसाओं के लिये औचित्य को दे मार ठोकर ,
    निराकृत हो, रूप धर प्रतिकार हित बन सर्वनाशी
    सृष्टि के उस पाप की जड़ को उखाड़, उजाड़ धरतीं !.

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    उत्तर
    1. कामायनी के शब्दचित्र स्मरण हो रहे हैं ।
      धरती इसी तरह समायोजन करेगी, अन्धाधुन्ध खनिज उत्खनन और बांधों का कुछ तो दुष्प्रभाव होना ही था ।

      हटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.