बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

गुलदस्ते का छल


हिमालय की उपत्यिका में कई प्रकार की प्रजातियों के पुष्प खिलते थे । उनमें एक प्रकार का साहचर्य था जिसमें सहअस्तित्व की समझ थी । फिर किसी ने दूर देश के कुछ कंटीले पौधे भी लाकर वहाँ रोप दिये । वे भी पुष्पित हुये किंतु उनमें सहअस्तित्व की समझ का अभाव था । वे अपने आसपास किसी अन्य प्रजाति के पौधे को विकसित नहीं होने देना चाहते थे । सदियों से रेगिस्तान में अकेले रहते-रहते उनमें यही प्रवृत्ति विकसित हो गयी थी । हिमालय और रेगिस्तान के पौधे जिन परिस्थितियों में अंकुरित-पल्लवित और पुष्पित होने के लिये अभ्यस्त थे, उनमें भिन्नतायें थीं इसलिये वे उन्हें बनाये रखना चाहते थे । रेगिस्तान के पौधे अपने लिये अपनी अभ्यस्त पूर्वपरिस्थितियों के निर्माण की माँग करने लगे । शीघ्र ही हिमालय की शांत परिस्थितियाँ अशांत हो गयीं ।
कुछ अवसरवादी लोगों ने देशी-विदेशी सभी पुष्पों को चुनकर उनका गुच्छा बनाया और उन्हें एक धागे से बाँधकर ग़ुलदस्ते में रख कर राजा के सामने प्रस्तुत किया । राजा को ग़ुलदस्ता अच्छा लगा । उसने अपने राज्य में ‘ग़ुलदस्ता कल्चर’ विकसित करने का आदेश दिया । भिन्न-भिन्न प्रकृतियों और गुणों वाले पुष्पों को एक धागे में बँधकर ग़ुलदस्ते में रहना रास नहीं आ रहा था किंतु राजा का हठ था कि वह सब धान बाइस पसेरी ही तौलेगा ।
जैसे-जैसे ग़ुलदस्ते का आकार बड़ा होता गया पुष्पों के पृथक अस्तित्व का संघर्ष भी बढ़ता गया । रेगिस्तान से आये विदेशी पौधे पूरे हिमालय की पारिस्थितिकी अपने अनुकूल बना लेने के लिये उग्र होने लगे । उन्हें चीड़ और देवदारु के दैवीय स्वरूप वाले वृक्ष फूटी आँखों नहीं सुहाते थे । वे हिमालय को रेगिस्तान की उष्ण रेत से झुलसा देना चाहते थे जिससे वहाँ नागफनी और खजूर उग सकें और उनकी रेगिस्तानी संस्कृति विकसित हो कर पूरे हिमालय में व्याप्त हो सके । यह केवल ब्रह्मकमल और नागफनी के सांस्कृतिक अस्तित्व का ही नहीं अपितु हिमालय की ऊँचाइयों और रेगिस्तान के ढूहों, हिमाच्छादित चोटियों और रेत के उष्ण टीलों, विस्तृत नदियों और संकुचित पोखरों, हरे-भरे खेतों और वनस्पतिविहीन रेतीले मैदानों, सेव और खजूर के पेड़ों के साथ-साथ और भी न जाने कितने अस्तित्वों का प्रश्न था जो अपनी प्राचीन पहचान को बनाये रखने के लिये संघर्षरत था।
पृथक पहचान के उन्माद ने हिमालय के विस्तृत प्राङण में से अपने लिए एक पृथक रेगिस्तान की माँग को लेकर संघर्ष छेड़ दिया, उनका संघर्ष सफल हुआ। हिमालय के विस्तृत प्राङण के बीच सीमा रेखायें खीची गयीं । पश्चिम में अरबमहासागर और पूर्व में हिंदमहासागर के समीप के दो बड़े भूभाग नागफनी और खजूर को दे दिये गये । कंटीली नागफनी और खजूर के लिये इतना पर्याप्त नहीं था, वे पूरे हिमालय को रेगिस्तान में बदल देने के लिए हिंसक हो उठे ।  
सांस्कृतिक-धार्मिक उन्मादजन्य पृथक अस्तित्व और पृथक पहचान के लिए होने वाले इस संघर्ष को बनाये रखने के लिए ग़ुलदस्ता कूटनीति सहायक सिद्ध हो रही थी । छलीपरिभाषायें सम्मानित होने लगीं और मौलिक परिभाषायें अर्थविहीन होने लगीं । उधर हिमालय का अपना मौलिक अस्तित्व संकटग्रस्त होता जा रहा था ।
इस समस्या के हल के लिये हिमालय की उपत्यिका में महर्षियों ने सम्भाषा परिषद आहूत करने का निर्णय किया । विदेशी मूल की रेगिस्तानी नागफनी को भी आमंत्रित किया गया ।
सम्भाषा का प्रारम्भ करते हुये कंटीली नागफनी ने अपने उग्र विचार रखे – “हम पिछली कई सदियों से इस भूभाग में विजेता और स्वामी की हैसियत से रहते आये हैं । हिमालय हमारा विजित भूभाग है हम अपने विजित भूभाग में कुछ भी करने के लिये स्वतंत्र हैं । दुर्भाग्य से हमें अपने ही विजित भूभाग में अपने मौलिक अधिकारों के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है । हम हमारे बनाये हुये मौलिक अधिकार अपने साथ लेकर चलते हैं, हमें आपकी ख़ैरात नहीं चाहिये । हिमालय की इस सर्दी में हम जी नहीं सकते हम यहाँ ग़र्मी और तपती हुयी रेत फैलाना चाहते हैं जिससे हमारे सांस्कृतिक पौधे अपनी पूरी पहचान के साथ यहाँ प्रभावी हो सकें । हम यहाँ कमल में नागफनी के काँटे और देवदारु के वृक्ष में खजूर की कँटीली पत्तियाँ लटकाने तक अपना संघर्ष करते रहेंगे । आप लोगों को सोचना चाहिये कि आख़िर हम खजूर के बिना जियेंगे कैसे ? खजूर हमारी आवश्यकता है, खजूर हमारी पहचान है और अपनी पहचान बनाये रखना हमारा अधिकार है । आप याद कीजिये, गुलदस्ता संस्कृति में आपने हमें यही वायदा किया था” ।
सम्भाषा परिषद में पुष्पशिरोमणि पद्म ने इसे सांस्कृतिक अस्तित्व का संघर्ष बताते हुये परिभाषाओं को पुनः रेखांकित किये जाने की आवश्यकता पर बल दिया । उनके अनुसार - “वानस्पतिक समाज में उत्कृष्ट वैचारिक समानताओं पर सामाजिक सहमति से बने प्रतीकों, परम्पराओं और उनके निरंतर परिमार्जन के परिणामस्वरूप संवर्धित और परिष्कृत होते समाज की संस्कारित व्यवस्थायें ही प्रशस्त मानी गयी हैं । सहअस्तित्व, समान सम्मान, विकसित होने की समान सुविधायें और नैतिक मूल्यों पर आधारित समाज व्यवस्था हिमालय की विशेषता रही है । यहाँ की पारिस्थितिकी ....यहाँ का मौसम, यहाँ का वातावरण, सब कुछ हमारे अनुकूल रहा है । हम इससे भिन्न पारिस्थितिकी में रहने के अभ्यस्त नहीं हैं ...अभ्यस्त हो भी नहीं सकते । यदि नागफनी और खजूर को यहाँ की पारिस्थितिकी प्रतिकूल लगती है तो वे अपने मूल देश में जा सकते हैं जहाँ की पारिस्थितिकी उनके लिये अनुकूल है किंतु हम हिमालय की पारिस्थितिकी को परिवर्तित करने के लिए सोच भी नहीं सकते । ऐसा कोई परिवर्तन हमारे अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा । और फिर हम हिमालय के अतिरिक्त और कहीं जा भी तो नहीं सकते”।     
        नाव के आकार वाले अगस्त्य पुष्प ने कहा- “आज चारो ओर जिस गुलदस्ता संस्कृति की धूम मची हुयी है, हम उसका विरोध करते हैं । वस्तुतः वह कोई संस्कृति है ही नहीं, एक कूटनीति है जो विदेशी पारिस्थितिकी को हिमालय में रोपित करना चाहती है । हम वह भी कर सकते थे किंतु हिमालय की पारिस्थितिकी की हत्या के मूल्य पर नहीं । समझ में नहीं आता कि लोग इतने हठी क्यों हैं कि वैज्ञानिक सिद्धांतों की निरंतर उपेक्षा करने में लगे हुये हैं । हम तो रेगिस्तानी पारिस्थितिकी की हत्या नहीं करना चाहते । हम नागफनी को समाप्त नहीं करना चाहते, फिर यह कंटीली नागफनी ही हमारी हत्या के लिये इतनी उद्यत क्यों है? हम इस असंस्कृति को हिमालय में पैर नहीं पसारने देंगे”।
तृण जाति के, झूमते रहने वाले कास पुष्पों ने महर्षि देवदारु के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखी कि वे संस्कृति, असंस्कृति और अपसंस्कृति के सूक्ष्म अंतर को जानना चाहते हैं । तब कास की जिज्ञासा का समाधान करते हुये महर्षि देवदारु ने कहा – “हे कास ! ध्यान से सुनो, सर्व कल्याण के भाव से जब कोई मूल्य और विचार व्यावहारिक आकार ले कर एक व्यापक समूह में प्रचलित व सुस्थापित होते हैं तो वे ‘संस्कृति’ के परिचायक होते हैं । मात्र स्वकल्याण के भाव से जब कोई संकुचित विचार या योजना व्यावहारिक आकार लेती है तो वह ‘असंस्कृति’ का परिचायक होती है। जबकि सुस्थापित संस्कृति को विकृत करने वाले कुविचार या षडयंत्र ‘अपसंस्कृति’ के परिचायक होते हैं । ध्यान रहे कि संस्कृति में गतिशीलता होती है, असंस्कृति में जड़ता होती है जबकि अपसंस्कृति में प्रज्ञापराध के कारण सुस्थापित संस्कृति का पतन होता है”।   
वृद्ध तालीश के विशाल वृक्ष ने कहा – “मैंने सुना है कि संस्कृति, धर्म, आध्यात्म और नीति जैसे गूढ़ विषयों की श्रेष्ठपरिभाषाओं की षडयंत्रपूर्वक हत्या कर दी गयी है और सेक्युलरिज़्म जैसे छद्म शब्द प्रतिष्ठा पा रहे हैं । मैंने तो यहाँ तक सुना है कि नागफनी ने अपनी मान्यताओं और अपनी परम्पराओं को ही विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति घोषित कर दिया है । वहाँ तक भी सह्य है किंतु अपनी परम्पराओं को बलपूर्वक दूसरी संस्कृतियों पर थोप देना अमानवीय और अनाचार है । यह संस्कृतियों की हत्या का अपसंस्कारी दुष्प्रयास है। हम किसी भी स्थिति में हिमालय की पारिस्थितिकी को रेगिस्तान की पारिस्थितिकी नहीं बनने देंगे”।
       
सम्भाषा इस घोषणा के साथ समाप्त की गयी कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के स्वभाव, उनकी अनुकूलतायें व प्रतिकूलतायें, उनकी प्रतिबद्धतायें और उनकी पारिस्थितिकी को एक ही तराजू में रखकर नहीं तौला जा सकता । इसलिए नागफनी और खजूर को हिमालय में रहने के लिए अपने अन्दर अनुकूलन विकसित करना होगा - यह एक सुस्थापित वैज्ञानिक सत्य है जिसका सम्मान किया ही जाना चाहिये ।

  

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

ये हमारी चिंता के विषय क्यों नहीं बन सके ?


 भारत में हर कोई शक्तिशाली होना चाहता है । शक्तिशाली होने के लिए अधिकारवान होना पड़ता है । अधिकारवान होने के लिए परिश्रमी होना पड़ता है । यह परिश्रम सात्विक, राजसिक या फिर तामसिक हो सकता है । तामसिक प्रकार के परिश्रम के लिए बाहुबल, कूटरचना या फिर धनबल की आवश्यकता होती है ।

भारत में अधिकारवान होने के लिए तामसिक परिश्रम अधिक सरल और लोकप्रिय उपाय है ।

एक बार जब हम अधिकारवान हो जाते हैं तो शक्ति हमारे चारो ओर नृत्य करने लगती है ।

जब हम अधिकारवान हो जाते हैं तो अनायास ही ज्ञानवान भी हो जाते हैं । यह ज्ञान कोई साधारण ज्ञान नहीं होता, किसी एक विषय का भी नहीं होता, यह तो सम्पूर्ण ज्ञान होता है, सभी विषयों और सभी क्षेत्रों का सम्पूर्ण ज्ञान । इस ज्ञान के आगे विषय विशेषज्ञ, ऋषि और महर्षि आदि पानी भरते से दृष्टिगोचर होते हैं ।
ऐसे परम ज्ञानियों के लिए कोई जानकारी, कोई उपदेश, कोई अनुसन्धान, कोई अन्वेषण अनुपयोगी होता है क्योंकि उनके ज्ञान का स्तर इन सबसे ऊपर होता है ।

हमारे देश में अधिकांश नेता और अधिकारी इसी कोटि के होते हैं । ऐसे अधिकारवान और शक्तिशाली परमज्ञानियों की छत्रछाया और निर्देशन में ही ऋषियों, महर्षियों और वैज्ञानिकों को काम करना चाहिये क्योंकि यही भारत की त्रासदी है ।

यह त्रासदी भारत के लिए अभिषाप है .....और इस अभिषाप को भोगने के लिए भारत के सात्विक लोग बाध्य हैं । वे इसलिये बाध्य हैं क्योंकि उन्होंने इस देश में जन्म लिया । उन्होंने इस देश में जन्म क्यों लिया यह एक अनुसंधान का विषय है ।

भारत अद्भुत है । मैं कई बार इस उलझन में फस जाता हूँ कि दर्शन और आध्यात्मिक ज्ञान में सर्वश्रेष्ठ होने और श्रेष्ठ वैज्ञानिक प्रतिभाओं का देश होने के बाद भी यह देश इतना घटिया क्यों है कि यहाँ की प्रतिभायें पलायन के लिए विवश होती रही हैं .....और विदेशी आक्रमणकारी इस देश को स्वर्ग मानते रहे हैं? निश्चित ही यह एक गहन चिंतन का विषय है ।


2-
यह एक ख़ुशख़बरी है........
        कि अब मरने के बाद भगवान नहीं बन पायेंगे नेता ।

....क्योंकि अब किसी नेता के आवास को राष्ट्रीय स्मारक नहीं बनाया जायेगा । कलियुग में कौन है ऐसा जिसका राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाय ? जिस देश में राम और कृष्ण जैसे, रामानुजम और डॉ. हरगोविन्द खुराना जैसे, सरदार भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे राष्ट्रीय पूर्वजों की स्मृतियाँ और उनसे जुड़े चिन्ह संकटग्रस्त हो गये हों, उनके स्मारकों के बारे में कोई सोचने वाला न हो, सोचने वाला हो भी तो उसकी सोच विरोधों के दलदल में डूब गयी हो ....ऐसे दलदली व्यवस्था वाले देश में किसी नेता के स्मारक को राष्ट्रीय समारक न बनाये जाने की नीति बेशुमार भगवानों वाले देश की प्रजा के लिये राहतभरा है ।

वास्तव में हम भारतीय लोग आत्ममहानता की छ्द्म आत्ममुग्धता से ग्रस्त हैं । महानता के क्षेत्र में हम इतने महत्वाकांक्षी हैं कि अपने मरने के बाद भी अपना प्रभामण्डल बनाये रखने के लिए अपने जीते-जी कुछ घटिया सी जुगाड़ कर लेना चाहते  हैं ।

अब किसी नेता के आवास को राष्ट्रीय स्मारक नहीं बनाया जायेगा । कलियुग में कौन है ऐसा जिसका राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाय ? जिस देश में राम और कृष्ण जैसे, रामानुजम और डॉ. हरगोविन्द खुराना जैसे, सरदार भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे राष्ट्रीय पूर्वजों की स्मृतियाँ और उनसे जुड़े चिन्ह संकटग्रस्त हो गये हों, उनके स्मारकों के बारे में कोई सोचने वाला न हो, सोचने वाला हो भी तो उसकी सोच विरोधों के दलदल में डूब गयी हो ....ऐसे दलदली व्यवस्था वाले देश में किसी नेता के स्मारक को राष्ट्रीय समारक न बनाये जाने की नीति बेशुमार भगवानों वाले देश की प्रजा के लिये राहतभरा है ।

वास्तव में हम भारतीय लोग आत्ममहानता की छ्द्म आत्ममुग्धता से ग्रस्त हैं । महानता के क्षेत्र में हम इतने महत्वाकांक्षी हैं कि अपने मरने के बाद भी अपना प्रभामण्डल बनाये रखने के लिए अपने जीते-जी कुछ घटिया सी जुगाड़ कर लेना चाहते  हैं ।

4
सावधान!   
एक नया आतंकी मुल्क "ख़ुरासान" आकार ग्रहण करने की तैयारी में है ।

यह ख़ुरासान मुल्क भारत सहित कई एशियायी देशों को निगलने वाला है और भारत में इस पर कोई जनान्दोलन तक नहीं, यानी भारत की गुलामीप्रिय प्रजा को यह सब पसन्द है । भारत ने हमेशा ही बाहुबल के आगे घुटने टेके हैं और नतमस्तक हो कर दानवों का स्वागत किया है ।

यदि भारत, अमेरिका और रूस ने मिलकर इस्लामिक मुल्क के नाम पर आतंक कायम करने में माहिर इन ज़ेहादियों का मुक़ाबला समय रहते नहीं किया तो दुनिया को तबाह होने में और कलियुग का अंत होने में अब अधिक समय नहीं लगेगा ।

हमने दैत्यों-दानवों और राक्षसों की कहानियाँ पढ़ी हैं । महाशक्तिसम्पन्न ये आसुरी शक्तियाँ सदा ही मानवता के लिए अभिषाप की तरह फलित होती रही हैं । बीते कुछ महीनों में असुर देश सीरिया में दानवी शक्तियों ने अपना रौद्ररूप पूरे विश्व को दिखाया । इन दानवों ने मानवता के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है । उनकी कल्पना का एक महाराष्ट्र “ख़ुरासान” आकार लेने की तैयारी में है । इस हाइपोथेटिकल इस्लामिक महाराष्ट्र की उत्तरी सीमायें भारत-चीन की सीमा तक विस्तृत होने वाली हैं । भारत के कुछ दानव इस्लामिक महाराष्ट्र के स्वागत की तैयारी में कश्मीर में झण्डे लहरा रहे हैं । कश्मीर का प्रधानमंत्री इस सत्य को छिपाने के लिए बाध्य है ।

        हम जिस सांस्कृतिक भिन्नता और अनेकता में एकता की बात करते नहीं थकते उसका वास्तविक स्वरूप अब पूरा विश्व देख पा रहा है । वह बात अलग है कि भारत के लोग अभी भी उस स्वरूप को देख पाने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं । भारत के लोगों में दृष्टिमान्द्यता की व्याधि व्याप्त है ...इस दृष्टिमान्द्यता की चिकित्सा कौन करेगा ? इसका उत्तरदायित्व किस पर है ?


हम बताते हैं, इसकी चिकित्सा कोई नहीं करेगा क्योंकि इसका उत्तरदायित्व किसी के पास नहीं है । क्यों नहीं है उत्तरदायित्व ?  भारत क्यों बारबार विदेशियों के द्वारा पददलित होता रहा है ? भारत पर सुदूर पश्चिम के लोग सदियों तक क्यों हुक़ूमत करने में सफल रहे ? भारत की प्रजा अपने किन पापों के लिये जजिया कर, नमक कानून, कपास कानून और नील कानून जैसे आतंकी कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य होती रही है ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजने की परवाह तो भारत की निरीह प्रजा को भी नहीं है । चलिये ....हम और आप भी मुँह ढक कर सो जायें । 

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रिलीज़न और स्पिरिचुअलिज़्म


लैटिन भाषा के रेलिगर शब्द से निष्पन्न हुआ रिलीज़न आज अपना मूल अर्थ खो चुका है । तब पश्चिमी देशों में रिलीज़न जीवनशैली, मूल्यों और आचरण के लिए एक बन्धनकारी तत्व के रूप में प्रचलित हुआ करता था । किसी समुदाय विशेष को एकजुट बनाये रखने, सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने और अपने समुदाय की एक पृथक पहचान निर्मित करने के लिए बनाये गये वैचारिक तंत्र ने रिलीज़न की अवधारण को जन्म दिया । यह बहुत कुछ भारतीयों के “धर्म” की अवधारणा से मिलता है । “धर्म” रिलीज़न की अपेक्षा अधिक व्यापक और वैश्विक है, यह समुदाय विशेष के लिए नहीं प्रत्युत प्राणिमात्र के सुखी और शांत जीवन के लिए है । इनमें वही अंतर है जो स्पिरिचुअलिज़्म और “आध्यात्म” में है । पश्चिमी स्पिरिचुअलिज़्म अलौकिक शक्तियों के चिंतन और मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों तक सीमित है जबकि भारतीयों का “आध्यात्म” ब्रह्माण्ड की सूक्ष्मतम शक्तियों और स्थूलतम पिण्डों के पारस्परिक वैज्ञानिक सम्बन्धों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करता है ।
धर्म के विपरीत रिलीज़न एक पृथक्त्वकारी तत्व है ।  यह किसी समुदाय विशेष की पृथक पहचान और उसके हितों तक सीमित है । धर्म उस आचरण की संस्तुति करता है जो किसी मानव समुदाय विशेष के संकुचित हितों को नहीं प्रत्युत प्रकृति और प्राणिमात्र के बीच सहज, साहचर्यपूर्ण और स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित कर सकने में समर्थ हो । धर्म में तरलता है, आग्रह है, उदारता है । रिलीज़न में कठोरता है, दुराग्रह है, संकीर्णता है ।
अब प्रबुद्ध विश्व को यह तय करना होगा कि उसे विश्वबन्धुत्व और शांति की स्थापना करना है या छद्म समुदायबन्धुत्व और आतंक की स्थापना करना है । भारत, चीन, जापान, रूस और अमेरिका जैसे देशों की भूमिकायें यह सुनिश्चित करेंगी कि कलियुग का अंत किस तरह होगा ।    

जिस तरह चीन घुसपैठ की दुष्टता से ग्रस्त है उसी तरह हम भी शब्दों के अतिक्रमण की दुष्टता से ग्रस्त हैं । हमने धर्म को अचेत कर उसके अन्दर रिलीजन को जाग्रत कर दिया है । इसी कारण अब हमने रिलीज़न को ही धर्म कहना शुरू कर दिया है ।
कुछ पीढ़ी पहले हमने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया, कारण जो भी रहा हो । धर्म परिवर्तन के साथ ही हमने अपने पूर्वजों का विरोध और अपमान करना शुरू कर दिया और सम्मान करने लगे उन विदेशियों का जिनसे हमारा दूर-दूर तक कभी कोई अच्छा नाता नहीं रहा बल्कि वे हमारे प्रति क्रूर व्यवहार करते रहे । हमने अपने उच्च आदर्श त्याग दिए और अपना लिये वे आचरण जो निन्दनीय हैं, मानवता के लिए अभिषाप हैं । हमने अपने पारम्परिक विचार त्याग दिए और स्वीकार कर लिए वे विचार जो भारतीय समाज के लिए अनुकूल नहीं हैं । हमने भोजन का पारम्परिक तरीका त्याग कर तामसी भोजन करना शुरू कर दिया । हमने अपने पर्व-त्योहार त्याग दिये और अपना लिए वे पर्व त्योहार जो हमारे लिए कभी अनुकूल नहीं रहे । हमने अपने पारम्परिक वस्त्र त्याग दिये और अपना लिए वे वस्त्र जो हमारे लिए नहीं विदेशी धरती के लोगों के लिए उपयुक्त हैं । धर्मांतरित होते ही हमारी प्रतिबद्धतायें बदल गयीं, हमारी निष्ठा बदल गयी, हमारे चिंतन की दिशा बदल गयी, हमारे आराध्य बदल गये, हमारे तीर्थस्थल बदल गये, हमारे मित्र बदल गये, हमारे शत्रु बदल गये, हमारे नारे बदल गये , हमारी भाषा बदल गयी, हमारे संस्कार बदल गये, हम पूरी तरह बदल गये ....फिर भी हमारा ये ज़िद भरा दावा है कि हम भारत के सच्चे नागरिक हैं ।


अभी मैं कमलदीप भुई और दिनेश भूगरा की पुस्तक CULTURE AND MENTAL HEALTH” पढ़ रहा हूँ । मानसिक स्वास्थ्य और संस्कृति के पारस्परिक सम्बन्धों को फिर से परिभाषित और रेखांकित करने का प्रयास किया जा रहा है । भारतीय परम्परा के अनुसार दोनो ही अन्योन्याश्रित हैं । मानसिक स्थिति अच्छी न हो तो संस्कृति कुन्द होती है । संस्कार के लिए अच्छी मानसिक स्थिति की आवश्यकता है । दैनिक आचरण में निरंतर परिमार्जन ही तो संस्कार है । संस्कार एक गतिमान तत्व है जो निरंतर श्रेष्ठता की ओर गमन करता है । जहाँ गमन न हो तो वहाँ रूढ़ता होगी । जहाँ रूढ़ता होगी वहाँ दुराग्रह और संकीर्णता होगी । अच्छे संस्कार न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिये अपितु सामाजिक स्वास्थ्य के लिये भी अपरिहार्य हैं ।  सामाजिक स्वास्थ्य पर ही किसी राष्ट्र  का स्वास्थ्य और अस्तित्व निर्भर करता है । क्या किसी देश की संस्कृति में एकरूपता के महत्व की अवहेलना करना उचित है ? 

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

तंत्र-षडयंत्र


स्वतंत्र भारत के छत्तीसगढ़ प्रांत में बस्तर के प्रवेशद्वार पर स्थित है आयातित विचार ‘माओवाद’ से ग्रस्त एक छोटा सा जिला कांकेर। राजतांत्रिक व्यवस्था के युग में कभी यह एक राज्य हुआ करता था जिसके अधिकांश निवासी वनवासी समुदाय के प्रकृतिपूजक, धार्मिक, अकिंचन और संतोषी लोग थे। पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त होने पर स्वतंत्र हुये भारतीयगणतंत्र में देशी राज्यों और रियासतों के विलय के साथ ही भारतीयराजतंत्र इतिहास बन गया। तंत्र बदला, तंत्र को संचालित करने वाले यंत्र बदले, यंत्रों के चालक-संचालक बदले, सहस्त्रों वर्ष पुरानी मान्यतायें बदलीं और बदल गये शोषण के तरीके । कांकेर के महाराजा आदित्य प्रताप देव तो यहाँ तक कहते हैं कि पराधीन भारत और स्वाधीन भारत में केवल चोले का अंतर है । पराधीन भारत के लिए उपयुक्त कानूनों से ही स्वाधीन भारत भी शासित हो रहा है ।
मनुष्य पर मनुष्य के शासन-अनुशासन की प्राचीन परम्परा समाप्त हो चुकी है किन्तु उसके अवशेष आज भी उन दिनों की स्मृति दिलाते हैं । इन अवशेषों में कुछ शब्द हैं जो अब प्रभावहीन हो चुके हैं, कुछ उपाधियाँ हैं जो अस्तित्वहीन हो चुकी हैं, कुछ खण्डहर हो चुके और कुछ खण्डहर होने से बच गये भवन हैं जो या तो भारत शासन की सम्पत्ति हैं या फिर शब्दों में क़ैद हो चुके राजाओं की । दुर्गों और प्रासादों को देखने आने वाले दर्शकों को स्थानीय गाइड बड़े ही गौरवपूर्ण तरीके से वहाँ की गाथायें सुनाते हैं । गाथायें ऐसी कि उनके सामने वर्तमान लोकतंत्र धूमिल हो उठता है ।  
महाराजा, महारानी, राजमाता, राजकुमार और राजकुमारी जैसे शब्द अब प्रभावहीन हो चुके हैं । अपना गौरवपूर्ण वैभव खो चुके दुर्ग और प्रासाद राजनीतिक क्षितिज से लुप्त हो चुके हैं । भारत के लिये यह एक विराट परिवर्तन था ।  क्यों हुआ यह परिवर्तन, कैसे हुआ और होने के बाद क्या हुआ ? 


ज़ॉली बाबा (मझले राजकुमार) के आमंत्रण पर दशहरे के दिन कांकेर राजमहल की युगों पुरानी परम्परा का निर्वहन होते देखने का अवसर मिला तो मन में उमड़ते-घुमड़ते बहुत सारे प्रश्न उत्तर की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकते रहे और मैं उन परम्पराओं में राजतंत्र की विशेषताओं को खोजता रहा ।
मेरे राजमहल पहुँचने से पहले ही वहाँ लोगों की भीड़ लग चुकी है, फिर भी लोगों के आने का क्रम थम नहीं रहा है । इन आगंतुकों में दूर गाँवों से आने वाले ग्रामीण हैं, नगर के सम्भ्रांत लोग हैं, उत्सुक पर्यटक हैं, विभिन्न दलों के वर्तमान और पूर्व विधायक हैं, स्थानीय राजनेता हैं, जंगलवार कॉलेज के ब्रिगेडियर हैं, पत्रकार और शोधार्थी हैं । इनमें से अधिकांश लोग अनामंत्रित हैं । ये वे लोग हैं जो दशहरा की परम्परा निभाने हर साल स्वस्फूर्त चेतना से आते हैं । यह चेतनभीड़ उस निश्चेतनभीड़ से पूरी तरह अलग है जो राजनेताओं के भाषण सुनने के लिये सभास्थल पर बरगला कर या मूल्य देकर लायी जाती है । भीड़ के चेहरों और उत्साह ने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया है कि एक आम आदमी के मन में आज भी अपनी प्राचीन परम्पराओं और शासन प्रणालियों के प्रति आदरपूर्ण भाव है । क्यों है यह आदरपूर्ण भाव ? क्यों है यह आकर्षण ? वही भीड़ कभी निश्चेतन तो कभी चेतन कैसे हो जाती है ?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजे जाने चाहिये । वर्तमान लोकतंत्र के सही मूल्यांकन के लिये जिस आधारभूमि की आवश्यकता है वह इन प्रश्नों के उत्तरों में छिपी हुयी है । आज दशहरा पर्व है, लोगों की भीड़ है, कांकेर का महल है, राजपरिवार है और हम हैं ....अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए। इस खोज में आपकी सहभागिता अपेक्षित है । तो चलिये, मिलते हैं राजमहल परिसर के चप्पे-चप्पे से जिसमें छिपे हुये हैं न जाने कितने प्रश्नों के उत्तर ।   


दशहरे के दिन सुबह से ही महल में चारो ओर चेतनभीड़ है, राजपरिवार के सदस्य भी उस चेतनभीड़ के एक भाग बन चुके हैं । किसी स्तर पर कहीं कोई विभेद नहीं है, कोई वर्ग नहीं है, कोई विशिष्टता नहीं है और इसीलिए सुरक्षा की कोई व्यवस्था भी नहीं है । अपनों के बीच सुरक्षा की क्या आवश्यकता !
जॉली बाबा ने मुझे बताया कि प्रति वर्ष दशहरे के दिन एक वृद्धास्त्री महल में आया करती थी और अपनी श्रद्धा के पुष्प चढ़ा कर वापस चली जाती थी । उसका एक हाथ नहीं था । कोई नहीं जानता वह वृद्धा कौन थी । अचानक दो वर्ष पहले उस वृद्धास्त्री ने महल आना छोड़ दिया । बाद में पता चला कि वह परलोक सिधार गयी । यह भी पता चला कि यह वही वृद्धास्त्री थी जिसका एक हाथ उसकी किशोरावस्था में नरभक्षी बाघिन ने खा लिया था । इससे पहले वह सत्रह और लोगों को अपना शिकार बना चुकी थी, वह किशोरी उसकी अठारहवीं और अंतिम शिकार थी । बाघिन आज भी कांकेर के राजमहल में बड़ी शान से खड़ी है । 


अपने कन्धों पर आंगादेव को लिये सुदूर गाँवों से आने वाले ग्रामीणों का स्वागत करते राजकुमारों को देखते समय मैं सोच रहा हूँ कि इन्हें किसी नक्सली या माओवादी से डर क्यों नहीं लगता ? लोगों में परस्पर असुरक्षा की भावना कब और क्यों विकसित होती है ? हमारे वर्तमान मंत्रियों को सुरक्षा की इतनी आवश्यकता क्यों है ? जनता के सेवक को जनता से इतना डर क्यों है ? यह अविश्वास क्यों विकसित हो गया ? असुरक्षा और अविश्वास को पोषित करने वाली यह कैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था है ?  


महल के मुख्यकक्ष के प्रवेशद्वार पर खड़ी भीड़ से घिरे मझले राजकुमार सूर्यप्रताप सिंह देव और छोटे राजकुमार अश्विनी प्रताप सिंह देव आंगादेवों का स्वागत कर रहे हैं । एक-एक कर आंगादेव आते जा रहे हैं और दोनो राजकुमार उनके पाँव पखारते जा रहे हैं । आंगादेव के भक्त उन्हें लेकर मुख्य कक्ष में एक द्वार से अन्दर प्रवेश कर दूसरे द्वार से बाहर निकल रहे हैं । इस बीच आंगादेव कक्ष की कुछ चीजों को स्पर्श भी करते हैं । उनके आगे-आगे चल रहे भक्त झूम रहे हैं, उनके ऊपर दैवीशक्ति का निपात हो रहा है ।
हर गाँव के एक आंगादेव होते हैं, कुल बावन गाँवों के आंगादेवों का आगमन हुआ है । कौन हैं ये आंगादेव ?

कांकेर से दक्षिण-पश्चिम की ओर महाराष्ट्र के गढ़चिरौली को जाने वाले मार्ग पर लगभग पच्चीस कोस की दूरी पर एक नदी है जिसकी रेत में स्वर्ण कण पाये जाते हैं । स्थानीय लोग न जाने कब से रेत में से इन स्वर्णकणों को निकालते आ रहे हैं । यह आज से कई युग पहले की बात है जब एक सुन्दर वनवासी स्त्री उस नदी की रेत में से स्वर्णकण बीनने आया करती थी । श्रम से थक कर वह सुन्दरी नदी में स्नान करती और फिर अपने घर चली जाती । एक दिन दो राजकुमारों ने उसे स्नान करते देख लिया । वे उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गये । फिर वे रोज वहाँ आते और छिपकर युवती को स्नान करते देखा करते । युवती के पति को जब इस बात की भनक लगी तो उसने उन दोनो राजकुमारों की हत्या कर दी । अपनी हत्या के बाद दोनो राजकुमार देव बन गये । उनकी आत्मा लकड़ी में प्रविष्ट हो गयी, इन्हें ही आंगादेव कहा जाने लगा। ये प्रमुख आंगादेव थे । बाद में समाज का कोई भी विशिष्ट व्यक्ति किसी घटना विशेष में यदि अकाल मृत्यु को प्राप्त होता तो आंगादेव बन जाता । इस तरह आंगादेवों की संख्या बढ़ने लगी । आज हर गाँव के अपने एक पृथक आंगादेव हैं । समाज की विशिष्ट स्त्रियाँ भी अकालमृत्यु होने पर देवी बन कर समाज का मार्गदर्शन करती हैं।


संध्या समय महाराज आदित्य प्रताप देव जी आंगादेव के दर्शन पर बहुत अच्छी जानकारी देने वाले हैं । लेकिन अभी तो हम आपको उस ओर ले जाना चाहते हैं जहाँ हिज़ हाइनेस महाराजा आदित्य प्रताप देव जी अपने अनुचरों के साथ जा रहे हैं ।


आंगादेवों का स्वागत का कार्य हो चुका है और अब उन्हें पूजन के लिये एक मंचनुमा अस्थायी मंडपम में ले जाया जा रहा है जहाँ महाराज अपने पूरे परिवार के साथ एक-एक कर सभी आंगादेवों के पास जाकर उनकी पूजा अर्चना करेंगे । महाराज के पीछे चल रही सेविकाओं के हाथों में पीतल की परातें हैं जिनमें पत्ते के दोनों में चावल आदि पूजन की सामग्री है । दो सेवक बोरों में नारियल लेकर चल रहे हैं । महाराज प्रत्येक आंगादेव के पास पहुँचकर पूजन के पश्चात नारियल अर्पित करते जा रहे हैं ।
बावन आंगादेवों के पूजन की लम्बी प्रक्रिया के बाद एक अन्य मंडपम में महाराज अपने परिवार के साथ बैठ कर आंगादेवों को खेलते हुये देखने वाले हैं । लोगों का विश्वास है कि देव शक्तियाँ अपने भक्तों के शरीर में प्रविष्ट होकर उन्हें अपने नियंत्रण में ले लेती हैं । देवशक्ति आवेशित व्यक्ति के शरीर में विचित्र प्रकार के कम्पन होने लगते हैं । अपने कन्धों पर लकड़ी के भारी भरकम आंगा को लिए लोग नाचते और भागते रहते हैं । उन्हें नियंत्रित करना सरल नहीं होता । प्राचीन परम्परा के अनुसार राजा और प्रजा के बीच यह एक ऐसा अवसर होता है जब वे एक-दूसरे के समीप आते हैं और अपने सम्बन्धों को सरल एवं प्रगाढ़ बनाने का प्रयास करते हैं । राजा अपनी प्रजा की मान्यताओं और आस्था को सम्मानित करते हैं और लोक मान्यताओं के प्रति अपना विश्वास प्रकट करते हैं ।
दर्शक दीर्घा की तरह प्रयुक्त होने वाले इस अस्थायी मंडपम में महाराज के पहुँचने से पहले ही कई लोगों ने आसनों पर अपना आधिपत्य कर लिया है । रिक्त पड़े तीन आसनों पर महाराज, राजमाता और महारानी को स्थान मिल गया है किंतु दोनो राजकुमारों को खड़े रहना पड़ेगा । उनके लिए रखे गये आसनों पर जनता पूरे अधिकार के साथ विराजमान हो चुकी है । वर्गभेद और विशिष्टता के अहं से दूर यह सरलता क्या हमारे राजनेताओं के लिये अनुकरणीय नहीं है ?
देव आवेशित भक्तों के शारीरिक कम्पन और विचित्र क्रियाकलापों के वैज्ञानिक पक्ष पर चिंतन का यह उचित अवसर नहीं है । इस विषय पर फिर कभी चर्चा होगी अभी तो आप नर्तक दलों के भावनृत्य का आनन्द लीजिये ।
नर्तक दलों को देखकर मैंने सोचा था कि दशहरा के दिन राम-रावण विषयक किसी प्रसंग का भावनृत्य देखने को मिलेगा किंतु मुझे निराश होना पड़ा है । नृत्य प्रारम्भ हो चुका है और नर्तकों को राम-रावण से कोई लेना-देना नहीं है । मांदरी, खड़खड़ी, वंशी, नगाड़ी, तुरही, मंजीरा, घुंघरू आदि परम्परागत वाद्ययंत्रों के साथ प्रस्तुत की जाने वाली नृत्य नाटिकाओं में वनवासी जीवन की झलकियों का सहज प्रस्तुतीकरण किया गया है । इसमें मोर का नृत्य है, जंगल में शिकार किये जाने की नृत्यनाटिका है और है दैनिक जीवन में विभिन्न अवसरों पर किये जाने वाले नृत्यों की झलक ।
दोनो राजकुमार सारी व्यवस्था स्वयं ही देख रहे हैं । भीड़ में हम प्रायः दूर हो जा रहे हैं इसलिये बीच-बीच में दोनो राजकुमार अपने अतिथियों से फ़ोन पर सम्पर्क बनाये हुये हैं । यह उनकी सरलता और उदारता का प्रमाण है ।

महल के पीछे खेतों की ओर सभी के लिए प्रसादम की व्यवस्था की गयी है, हमने उधर जाने का प्रयास किया किंतु भीड़ देखकर वापस आना पड़ा है । वाह ! वे रहे ज़ॉली बाबा ! चलिए अब हमारा काम बन जायेगा । खेतों की ओर जाने के लिए वे हमें महल के अन्दर ले जा रहे हैं । हम कई कक्षों, गलियारों और आँगनों से होते हुये बाहर निकल रहे हैं । ज़ॉली बाबा का अनुसरण करते हुये हमें लगा रहा है जैसे हम चन्द्रकांता संतति के किसी रहस्यमय दुर्ग या महल में हैं । हमें अधिक चलना नहीं पड़ा, ज़ॉली बाबा ने हमें समीप के रास्ते से खेतों के पास तक पहुँचा दिया है ।
प्रसादम ग्रहण करने के लिये दो मंडपम बनाये गये हैं । मैंगो पीपुल हों या बनाना पीपुल आज तो सभी को एक साथ प्रसादम ग्रहण करना पड़ेगा । हमारे साथ हैं रायपुर से आये क्रॉनिकल के पत्रकार डी.श्याम कुमार, स्थानीय काष्ठकलाकार अजय मण्डावी, आचार्य नवनीत शर्मा, स्थानीय पत्रकार योगेश और कुछ अनचीन्हे चेहरे । हम सभी भूमि पर एक पंगत में बैठ गये हैं । प्रसादम में परोसा जा रहा है आलू, गोभी, बीन, बैंगन, छोले ....की सब्ज़ी, दाल, देशी चावल का भात और आमिषों के लिए ......। 
स्वादिष्ट प्रसादम ग्रहण करने बाद हमें वापस महल जाना है । पूजा के समय भीड़ से घिरे महाराज ने जाने से पहले मिलने के लिए कहा था ।
और अब हम महल की ओर जा रहे हैं, हमारे विश्राम के लिए वहीं कहीं व्यवस्था की गयी है ।


विश्राम हो चुका है और अब अजय मण्डावी ने आकर बड़े महाराज के बुलावे की सूचना दी है इसलिए हम अपने दल-बल सहित महाराज से मिलने जा रहे हैं । 

बाहर बरामदे में हमें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । जल्दी ही महाराज आ गये, हम लोग वहाँ पड़े आसनों पर बैठ गये हैं कुछ और लोग भी हमें घेर कर बैठ गये हैं। विषय है – “राजशाही-लोकशाही” ।

इस वार्ता में उभर कर आये बिन्दु विचारणीय हैं । महाराज आदित्य प्रताप जी ने कुछ ऐसे रहस्यों को अनावृत किया है जिसके पश्चात हम भारतीय इतिहास के अलिखित तथ्यों पर गर्व करने के लिये बाध्य हुये हैं ।

महाराज आदित्य प्रताप देव जी के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप में राजतंत्रात्मक व्यवस्था के दो स्वरूप प्रचलित थे एक तो वह व्यवस्था जो विकसित, धनाड्य और संसाधनपूर्ण बड़े राज्यों में प्रचलित थी और दूसरी वह जो वनांचलों में प्रचलित थी । वनांचलों के राजा अपनी प्रजा की ही तरह संतोषी और सरल हुआ करते थे । कई राज्यों में कराधान की प्रणाली शिथिल हुआ करती थी जिससे प्रजा सुखी थी । राजा और प्रजा के बीच संबन्ध प्रगाढ़ हुआ करते थे और राजा उनके प्रति उत्तरदायी हुआ करते थे । आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती वनांचलों के कई राज्यों में राजस्व सर्वेक्षणों को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था । मुस्लिम पराधीनता के युग में भी बस्तर का वनांचल देशी राजाओं के ही आधिपत्य में बना रहा । सन 1890 तक वनवासी क्षेत्रों में कराधान प्रणाली मानवीय संवेदनाओं पर आधारित थी । राजा और प्रजा के मध्य सहदृयतापूर्ण सम्बन्ध थे । राजा अपनी वनवासी प्रजा का भगवान हुआ करता था । यह मान्यता वनवासी जनमानस में गहरायी तक जम चुकी थी । इस मान्यता के कारण ही जनता का अपने राजा के प्रति समर्पण भाव एकता और निष्ठा बनाये रख सकने में समर्थ हुआ । अरबों और मराठों के सहयोग से अंग्रेज सरकार ने जब बस्तर में प्रवेश किया तो उन्होंने राज्य व्यवस्था, शासन और कराधान की देशी पद्धति को समाप्त कर ब्रितानिया सरकार के लिये हितकारी नयी और कठोर व्यवस्था लागू करने के लिये देशी राजाओं पर दबाव डाला । यह लगभग उसी तरह था जिस तरह आज टी.वी. चैनल्स के माध्यम से भारतीय संस्कृति पर अपसंस्कृति का आक्रमण किया जा रहा है । राजा और प्रजा के मध्य स्थापित रही सहृदयता और मानवीय सम्बन्धों की परम्परा को समाप्त करने के कुचक्र किये गये जिससे उनके मध्य दूरियाँ बढ़ने लगीं । स्थानीय राजाओं द्वारा इस दूरी को पाटने के लिये पर्वों-त्योहारों की परम्परा के नाम पर अपनी प्रजा से निकट सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास किये जाते रहे । अंग्रेजों ने अपनी इसी नीति के अनुरूप बस्तर के राजकुमार प्रवीण भंज देव की शिक्षा-दीक्षा के लिए महल में एक महिला गवर्नेस रखी और उनकी जीवन शैली को पूरी तरह पाश्चात्य परम्परा में ढालने का कुचक्र किया । बाद में अंग्रेजों ने उन्हें सनकी, चिड़चिड़ा और पागल तक घोषित कर दिया । इस सबके पीछे उनका उद्देश्य था बस्तर राज्य को सीधे अपने नियंत्रण में लेना । 
अंग्रेजों ने बस्तर के देशी राजाओं के सामने राजा, राज्य व्यवस्था, शासन और कराधान की शोषणमूलक नयी परिभाषायें प्रस्तुत कीं । स्वाधीन भारत में अंग्रेजों की बनायी ब्रिटिश हित मूलक नीतियाँ अपना ली गयीं । पराधीन भारत में ब्रिटेन के लिये राजस्व की वसूली करने वाली निरंकुश कलेक्टरी व्यवस्था ही स्वाधीन भारत की प्रशासकीय व्यवस्था बन गयी । ब्रिटिश सरकार की तर्ज़ पर राज्य और केन्द्र सरकारें अस्तित्व में आयीं । नेतागण स्वयं को तो जनता के सेवक के रूप में प्रचारित करते हैं किंतु सेवकाई के इस तंत्र को ‘सरकार’ कहते हैं । ‘भारत सरकार’ के स्थान पर ‘भारत सेवक’ कब अपने अस्तित्व में आयेगा ? जनता के ये सेवक इतने महत्वपूर्ण कैसे हो जाते हैं कि सेवितों की सेवा करते-करते प्रभु बन जाते हैं ? क्या यह "सेवक" शब्द निर्धन और शोषित जनता के साथ क्रूर परिहास नहीं है ? 
‘सरकार’ शब्द मालिक और ग़ुलाम के सम्बन्धों को ध्वनित करता है । ‘सरकार’ शब्द ही अहंभाव से ग्रस्त है यह सुशासन का नहीं शोषण का प्रतीक है । प्राचीन भारत में राजा और प्रजा के मध्य दूरियाँ इतनी नहीं हुआ करती थीं जितनी आज के मंत्रियों और जनता के बीच हैं । वज्जीसंघ जैसे गणतंत्रात्मक देश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं ।  
स्वतंत्र भारत का आज भी कोई अपना स्वदेशी तंत्र नहीं है, स्वदेशी विधि नहीं है, स्वदेशी शिक्षा प्रणाली नहीं है, जीवन की स्वदेशी शैली और परम्परायें नहीं हैं ? कुछ भी स्वदेशी न होने पर भी हम स्वयं को स्वाधीन कहते हैं, यह कैसा मज़ाक है ? 
नहीं ....हमें भारतीय मूल्यों और मान्यताओं के अनुरूप एक ऐसी सुशासन व्यवस्था निर्मित करनी होगी जो पूरी तरह भारतीय हो और भारतीयों के गौरव को बढ़ाने वाली हो । 

हमारी वार्ता में आंगादेव का दर्शन भी है किंतु इस विषय पर पृथक से लिखना उचित होगा । इस लेख के उपसंहार में बस इतना ही कहना चाहूँगा, जैसा कि मैं पहले भी कहता रहा हूँ कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था कबीलातंत्र की ओर बढ़ती जा रही है । भारत का राजनैतिक और सामाजिक पतन अभी और होना शेष है । किंतु समय अच्छा भी आयेगा यह भी निश्चित है ।

और अंतिम बात यह कि यद्यपि राजतंत्र के समय प्रचलित राजा-रानी जैसे शब्द आज अपना अस्तित्व खो चुके हैं तथापि भारत की गौरवशाली परम्परा में इनके महत्व को आज तक टक्कर नहीं दी जा सकी है इसलिए आम भारतीयों की तरह मुझे भी ये शब्द आकर्षित करते हैं । आख़िर अंग़्रेज़ों ने अभी तक अपनी प्राचीन परम्पराओं को संरक्षित करके रखा है । ब्रिटेन की राजशाही कभी ख़त्म हो सकेगी क्या ? 



राजमहल के मुख्य कक्ष के बाहर आंगादेवों के स्वागत की प्रतीक्षा में  
मझले राजकुमार सूर्य प्रताप देव और छोटे राजकुमार अश्विनी प्रताप देव। 



आंगादेवों की पूजा के लिये मण्डपम की ओर जाते हुए कांकेर के महाराजा आदित्य प्रताप देव । 


आंगादेव का पूजन करते हुये महाराजा आदित्य प्रताप देव । पीछे हैं महारानी साहिबा । 


 कन्धे पर बन्दूक थामे क्रॉनिकल अख़बार के पत्रकार डी. श्याम कुमार, बीच में हैं ब्रिगेडियर और भगवा कुर्ता पहने खड़े हैं मझले राजकुमार सूर्यप्रताप देव (ज़ॉली बाबा) 


खड़े ही रहना पड़ा छोटे राजकुमार को ।  


प्रसादम की तैयारी करती वनवासी बालायें ।  



प्रसादम ग्रहण करने के लिये पंगत में बैठे लोग । 


आम लोगों के बीच चर्चा करते हुये महाराजा आदित्य प्रताप देव । 



नरभक्षी बाघिन 

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

अभय



यह प्रश्न लाख टके का नहीं है
एक टके का भी नहीं है
अधेले का भी नहीं है ।
दरअसल 
जिस प्रश्न का उत्तर हर किसी को पता हो
उस प्रश्न का भला क्या मूल्य ?
फिर भी
यह एक प्रश्न है
जो उत्तरों को चिढ़ाते हुये
मूछों पर ताव देते हुये
सबको चुनौती देते हुये
अपनी पूरी निर्लज्जता के साथ
तन कर खड़ा है । 

यह प्रश्न
एक समस्या है
जिसका उत्तर
प्रजा से लेकर राजा तक
सबको पता है ।
प्रजा के पास
साहस का अभाव है
राजा के पास
समाधान की इच्छाशक्ति का अभाव है ।
समस्या विकराल होती जा रही है
राजा
प्रश्न को बनाये रखते हुये
समाधान का दिखावा करता है
और इस दिखावे के लिए
करोड़ों रुपये स्वीकृत करता है ।
यह एक निर्लज्ज खेल है
जो प्रजा के प्राणों के मूल्य पर
खेला जा रहा है ।
सुना है
यह संत
सुनता नहीं
देखता नहीं
बोलता नहीं
क्योंकि
उसने पाप को
अभय दे दिया है ।


संदर्भ :- इस कविता का संबन्ध एक पुजारी से भी हो सकता है जो सुबह-शाम पूजा करता है और शेष समय डाके डालने में व्यस्त रहता है । इस कविता का संबन्ध एक राजा से भी हो सकता है जो दिन में ग़ुनाहों के उन मुकदमों का फ़ैसला करता है जिन्हें वह ख़ुद सारी रात करता रहा है । इस कविता का संबन्ध उस वीतरागी से भी हो सकता है जो सन्यासी है और हर रात एक कन्या से बलात्कार करता है । इस कविता का संबन्ध हर उस धूर्त भेड़िये से भी हो सकता है जो संत बनकर हर क्षण किसी शिकार की तलाश में व्यस्त रहता है । इस कविता का संबन्ध लोकतंत्र की उन सभी दुष्ट व्यवस्थाओं से भी हो सकता है जो जनता की आँखों में धूल झोंकते हुये अपने पापी अस्तित्व को बनाये रखने में सफल होते रहते हैं ।

अर्थ :- अब बात बस इतनी सी है कि एक नरभक्षी शेर को इंसानों की सेहत का ज़िम्मा दे दिया गया है ।


वैधानिक चेतावनी :- वैधानिक चेतावनी इतने छोटे-छोटे अक्षरों में लिखी जानी चाहिये जिससे उसका प्रयोजन ही धूमिल हो जाय ।