मंगलवार, 8 जनवरी 2013

बदलती हैं आस्थायें तो बदलती हैं प्रतिबद्धतायें


  हमारे घर के ठीक पीछे एक झोपड़ी में रहती है मंगली। दुबली-पतली कंकाल सी मंगली, उसके तीन दुबले-पतले बच्चे और मर्द ...बस यही परिवार है मंगली का। कभी-कभी मंगली के घर से तालियाँ बजाने और भजन गाने की सामूहिक आवाज़ें आती हैं जो धीरे-धीर चीख में बदल जाती हैं। चीख रुदन में और फिर रुदन भयानक आर्तनाद में। बच्चे इस तरह चीखने लगते हैं जैसे कि कोई बाघ उन्हें ज़िन्दा चबाने लगा हो। पहली बार जब सुना तो मुझे निकल कर बाहर आना पड़ा, लगा जैसे भजन गाते-गाते कोई अनहोनी हो गयी है। आर्तनाद हृदयविदारक था। पूछने पर पता चला कि कि यह प्रार्थना की उच्चावस्था है। अब मैं अभ्यस्त हो गया हूँ।

  पड़ोसियों ने बताया यह एक कैथोलिक परिवार है जो अभी कुछ ही साल पूर्व हिन्दू से ईसाई बना है। उनके घर प्रायः कुछ नन आती हैं जो अपनी केरली हिन्दी में उन्हें उपदेश देती हैं, उनकी चंगाई के लिये प्रार्थना करती हैं, सामूहिक भजन होता है और फिर आती है भजन की हृदयविदारक भयानक उच्चावस्था।

  ज़िस्म और रूह के रिश्ते को समझने का जितना दावा किया गया, रूह उतनी ही दूर होती गयी। ज़िस्म क़रीब ...और क़रीब आता गया ...और सब कुछ उसी पर आकर ठहर गया।

  रूह स्वच्छन्द है, और ज़िस्म किसी का ग़ुलाम। दोनो के बीच पीरबाबा हैं या भैरमदेव या ईसा या साईंबाबा या कोई और। मंगली अब भी झूमती है, उस के ज़िस्म पर आती है एक रूह ....लोग उसे ईसा कहते हैं। बिसरू के ऊपर आते हैं भैरमदेव। सब कुछ वैसा ही है ..बदला है तो सिर्फ़ वह जिसे कोई देख नहीं पाया आज तक। लोग रूह कहते हैं उसे ..जिसके कुछ ठेकेदार हैं जो बड़ी मुस्तैदी से अपने काम को अंजाम देते आ रहे हैं।

  इन रूहों की पसन्द हैं ग़रीबों के बीमार ज़िस्म, इन रूहों की पसन्द हैं दो जून की रोटी के लिये खटते इंसान, इन रूहों की पसन्द हैं अशिक्षित लोगों के दिमाग। ज़िस्म और रूहों के बीच के ठेकेदार शांति, सुख और समृद्धि दिलाने का ठेका लेते हैं, बस! आप रूह का विभाग भर बदलने की इज़ाज़त दे दीजिये; और यह इज़ाज़त लेने वाले ठेकेदार ऐन-केन-प्रकारेण ले ही लेते हैं इसे।

  जगदलपुर में चर्चों की भरमार है। कुछ् चर्चों में रविवार के दिन भक्तों की उन्मादपूर्ण चीखें सुनी हैं मैंने। पादरियों के उत्तेजक भाषण सुने हैं। मुझे सब कुछ भयानक और अशांत सा लगता है। उपदेश सौम्य भाषा में नहीं हो सकता क्या? मैं अक्सर ख़ुद से पूछता रहता हूँ। आराधना स्थल में जाकर तो शांति की अनुभूति होनी चाहिये ...पर यहाँ यह क्या होता है? जगदलपुर में प्रति रविवार को चर्चों की ओर उमड़ती भीड़ मुझे ज़वाब देती है कि सब कुछ ठीक चल रहा है ...वे ख़ुश हैं ...उनकी प्रार्थनायें क़ुबूल हो रही हैं।

  मैं उनके घरों में गया हूँ, सबकी प्रार्थनायें क़ुबूल हो गयी हों ऐसा नहीं लगता। दुःख, बीमारियाँ, कलह, ग़रीबी, अशिक्षा, जादू-टोना, रूह का ज़िस्म पर आना, अन्धविश्वास ...सब कुछ वैसा ही है ...जैसा पहले था। सिर्फ़ उनकी आस्था का डिपार्टमेंट बदला है, भैरमदेव की जगह प्रभु यीशु की आत्मा उनके ज़िस्म पर सवार हो जाती है। मथुरा और अयोध्या का स्थान येरुशलम और बेथहेलम ने ले लिया है। उनकी प्रतिबद्धतायें बदल गयी हैं। यीशु को बुरी तरह चीख-चीख कर रोते-बिलखते लोगों की प्रार्थनायें ही क़ुबूल होती हैं। मैंने एक से पूछा, जब सब कुछ वैसा ही है तो डिपार्ट्मेंट बदलने से क्या लाभ? उत्तर मिला, हमारा गॉड सच्चा है, हिन्दुओं का भगवान झूठा है। हमें हमारा प्यारा यीशु शांति देता है जो आपका भगवान कभी नहीं दे सकता।

  मैं अक्सर सोचा करता हूँ क्या हमारे बीच के वंचित और उपेक्षित लोग भगवानों के डिपार्टमेंट्स की राजनीति को कभी समझ भी सकेंगे, ....और यदि नहीं समझ सकेंगे तो यह समझाने का उत्तरदायित्व किसका है?
 
  मैं आज तक नहीं समझ सका कि कोई व्यक्ति धरनिरपेक्ष कैसे हो सकता है? वैज्ञानिक युग का यह कितना बड़ा प्रतिष्ठित झूठ है जो मान्यताप्राप्त है। आस्थायें बदलें और प्रतिबद्धतायें न बदलें ऐसा सम्भव है क्या

3 टिप्‍पणियां:

  1. गंभीर, विचारणीय प्रश्‍न. हरिहर जी के मेल पर भी पढा.

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  2. पहले मुझे लगता था कि ये देवी आना वैगेरह हिंदू धर्म में ही होता है. परन्तु फिर द बिंची कोड फिल्म में इसे धर्म से जुड़े कुछ ऐसे ही दृश्य देखे जैसे आपने यहाँ बताये हैं. बहुत हैरानी हुई मुझे.वाकई धर्म बेशक अलग हों, बेबकूफ बनाने का तरीका बिलकुल एक है.

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  3. जब छोटे थे तब देवी स्थान में होने वाली पूजा और अनुष्ठान देखता था जिसमें अपनी आँखों से खौलते हुए दूध के हंडे में हाथ डालकर उसको चलाना और खीर बनाना.. जलाते हुए कोयलों पर नंगे पाँव चलते भी देखा है.. यकीन तब भी नहीं होता था कि यह सब पूजा का हिस्सा है.. भगवान भी सोचता होगा कि लोग क्या क्या सर्कस करते हैं उसके सामने..
    अगर इस तरह की प्रार्थनाओं से कुछ बदलने वाला होता तो दुनिया अब तक बदल चुकी होती.. आखिर सदियों से लोग यही सब करते आ रहे हैं, मगर दुनिया बद से बदतर और बदतरीन होती जा रही है.. और गरीब, बेसहारा, लाचार और अनपढ़ लोग सिर्फ इसलिए यह सब मान लेते हैं, क्योंकि उन्हें शायद पता है कि उनकी ज़िंदगी में इससे खराब तो कुछ भी नहीं होने वाला.. तो विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार अब जो होगा अच्छा ही होगा और न भी हो तो इससे बदतर क्या होगा!!
    और उन सभी धर प्रचारकों के लिए वे अनुयायी नहीं सिर्फ आंकड़े भर होते हैं!!

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.