शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

आरक्षण की माया+दलितों की माया = मायावती की माया -विकास -विकास -विकास......

बा अदब ! बा मुलाहिजा होशियार ! 
एक खौफ़नाक ख़बर है .........दिल थाम कर सुनियेगा ....
उत्तर-प्रदेश में अगले वर्ष चुनाव होने हैं ....................और ख़बर है कि मायावती मुस्लिमों को आरक्षण देने की माँग कर रही हैं. 
वे स्वयं को दलित प्रचारित करती हैं...और सम्राटों की तरह ऐश्वर्य भोग करने वाली मलिका-ए-उत्तरप्रदेश का रुतबा रखती हैं. भारत का कोई भी आम नागरिक यह जानने के लिए उत्सुक है कि क्या उन्होंने यह रुतबा आरक्षण की बैसाखियों से प्राप्त किया है ? क्या कोई दलित इन बैसाखियों के बिना बाबा साहेब आम्बेडकर नहीं बन सकता ? 
यदि माया को मिली माया का मूल आरक्षण की शिथिलता से उर्वरता प्राप्त करता है तो उन्हें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह व्यवस्था पर्याप्त है और उन्हीं की तरह अन्य लोग भी इसी व्यवस्था का लाभ लेते रहेंगे, इसमें कुछ और नया करने की क्या आवश्यकता ? किन्तु यदि बाबा साहेब की उपलब्धियाँ उन्हें अपनी क्षमताओं के कारण मिली हैं तो ऐसी ही क्षमता अन्य लोग भी क्यों नहीं अर्जित करते और क्यों नहीं लोगों को ऐसी क्षमता अर्जित करने के लिए उत्साहित-प्रोत्साहित किया जाता ?  
वस्तुतः आज राजनीति में कोई रुतबा हासिल करने के लिए किसी प्रशंसनीय गुण की आवश्यकता नहीं रह गयी. कूटनीतिक जोड़-तोड़, निम्नस्तरीय छल, जनता में दृढ़ता की कमी  और तामसिक परिस्थितियों से बने  शोषक समीकरण देश के अवसरवादियों को उनके अभीप्सित भेंट करते रहेंगे.  सत्ता सुख के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए पागल हो रहे राजनीतिज्ञों से जनता के हित की अपेक्षा करना व्यर्थ है . 
जनता के हित की छद्मचिंता से ग्रस्त होने के अभिनय में कुशल राजनीतिज्ञों से देश के लोग जानना चाहते हैं कि  देश को छल रही सरकारें जनता को कब तक बैसाखियाँ पकड़ाती रहेंगी ? 
दुर्बल वर्ग को बैसाखियों की नहीं अच्छे सोसियोथिरेपिस्ट की ज़रुरत है. जातिगत आरक्षण अपात्र को अपात्र बने रहने देने का और सुपात्र को उसकी क्षमताओं से देश को वंचित करने का निर्मम षड्यंत्र है. देश की जनता ...विशेष कर आरक्षित वर्ग को यह मंथन करना होगा कि आरक्षण की एक लम्बे समय से चली आ रही व्यवस्था से अब तक उनका कितना गुणात्मक उन्नयन हुआ है ? 
गुणात्मक उन्नयन के लिए जिन तत्वों की आवश्यकता होती है उनकी उपेक्षा करते रहने से बौद्धिकविकलांगता तो बढ़ेगी ही, देश में वर्ग-भेद भी बना रहेगा......अगले, पिछड़े, अतिपिछड़े, दलित, अतिदलित, अनुसूचितजाति, अनुसूचितजनजाति, मुस्लिम, ईसाई (आदि के अतिरिक्त....वैचारिक गर्भ में पल रहे अन्य समाज तोड़क वर्गों की कल्पनाएँ जो भविष्य में कभी भी जन्म ले सकती हैं) की खाइयाँ और भी गहरी और चौड़ी होती रहेंगी. 
अब समय आ गया है कि आरक्षित वर्ग के लोग स्वयं अपने गुणात्मक विकास का प्रयत्न करें और बैसाखियों का व्यामोह छोड़ें. आरक्षण एक ऐसा बौद्धिक कैंसर है जिसकी मेटास्टेसिस को आगे रोकना होगा. इस कैंसर से छद्म चिकित्सक बन कर रहनुमाई करने वाले मात्र राजनैतिक दलों का ही लाभ है, पीड़ित का लेश भी नहीं. पीड़ित आने वाले समय में कॉमा में चला जाय इससे पहले उसे अपना चिकित्सक स्वयं बनना होगा. 
जातिभेद और शोषण के विरुद्ध वर्गहीन, सामाजिक समानता और सुख के कल्पना जगत में मोहित हुआ समाज का लुब्धवर्ग धर्मांतरण के बाद भी त्यक्त व्यवस्था की दुहाई देकर ...उसी त्यक्त जाति, वर्ग-भेद और सामाजिक असमानता के नाम पर किसी अनपेक्षित लाभ की आशा क्यों करना चाहता है ? उसे अपने नए धर्म की व्यवस्था में ही विकास के पथ खोजने चाहिए ...यदि ऐसा कर पाने में वह असफल रहता है तो उसे यह घोषित करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि धर्मांतरण के नाम पर उसे ठगा गया है और यह भारतीय समाज को विखंडित करने की विदेशी कुनीति का एक पक्ष है.
यह भी विचारणीय है कि समाज में बौद्धिक और सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में क्या धर्म की भी कोई भूमिका है ? आखिर क्यों किसी धर्म विशेष के लोगों का भारतीय समाज में रहते हुए....समान नागरिक सुविधाओं का उपयोग करते हुए भी  विकास नहीं हो पाया ?  या फिर इस पिछड़ेपन के कोई अन्य कारण भी हैं ? 
जहाँ तक पिछड़ेपन का प्रश्न है, भारतीय ( और पाकिस्तानी भी ) समाज के सभी धर्मों की सभी जातियों में कुछ लोग पिछड़ेपन के शिकार हैं. इन पिछड़े हुए लोगों में तथाकथित अगली जातियों के लोग भी हैं. सच तो यह है कि आर्थिक विपन्नता और सामाजिक कुरीतियों को दूर किये बिना किसी भी प्रकार का आरक्षण गुणात्मक विकास में सहायक होने के स्थान पर बाधक ही रहा है ...यह प्राकृतिक विकास के सिद्धांतों के विपरीत भी है. किसी भी धर्म के अनुयायियों को धर्म और जाति निरपेक्ष रहते हुए केवल और केवल विकास की समान मौलिक सुविधाओं की माँग करनी चाहिए.  
हमारा दावा है कि फिलहाल अगले कई वर्षों तक आने वाली कोई भी सरकार समान मौलिक सुविधाएं उपलब्ध कराना सुनिश्चित नहीं करेगी.   





  

वे पहली बार मिलें तो पूछूँ


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वह घड़ी आ गयी
आज अनोखी
जब
शहद घुले आँसू बरसेंगे.
खुश होंगे
हम  
फिर भी तरसेंगे.


किया विदेशी के संग हमने
एक सुखद स्वप्न का सौदा.
प्रीति के बदले
नेह स्वजन का
बिछुड़ रहा है........
तड़प रहा है ......
मन की मनमानी तो देखो
पंख लगाकर उड़ा जा रहा
कभी भीत हो ठिठक रहा है
कैसा है यह हृदय अनोखा
क्यों किया
सुखद स्वप्न का सौदा.


प्रीति पराई
ले अंगड़ाई
पल-पल
करे प्रतीक्षा.
कभी वियोग के दुःख से विह्वल
कभी सुखद स्वप्न की हलचल
अपनों से वियोग की पीड़ा
किन्तु विदेशी के सुयोग की
मन में सुखद स्वप्न की क्रीड़ा
किसको अधरों पर लाऊँ
किसको नयनों में बाँधूँ
किसको रोकूँ
किसको बह जाने दूँ.......
......................................
चंदा मामा दूर जा रहा
सूरज मेरे पास आ रहा
कुछ खोकर, कुछ पाने का
यह कैसा व्यापार हो रहा


केवल वधुओं के हिस्से में
अपनों से वियोग की पीड़ा !
यह कैसी है विधि की लेखी
वे
पहली बार मिलें तो पूछूँ
क्या तुमने कभी अमावस देखी  ?

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

Stock Video Footage: Aerial View of Fertile Growth around Volcanic Ash, Iceland

Stock Video Footage: Aerial View of Fertile Growth around Volcanic Ash, Iceland


ज्वालामुखी से बहते लावा को 
किसने पहचाना है 
धरती के आँसू को तुमने 
कितना जाना है 
बहते ग़र्म आँसुओं की 
भाषा में करुणा है 
किसी नए जीवन का सपना है 

ये जीवन है 
जलता है ...बुझता है .....
ख़ाक में मिलकर भी 
ख़ाक से सिर उठाकर 
फिर खिलखिलाता है ...........

बस,  इतनी गुज़ारिश है ........इस दिए हुए लिंक को प्यार से खोलिए 
ख़ाक में भी ज़िंदगी को मुस्कराते देखिये ....... 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

दीहें गारी ......


Posted by Picasa  
        मैं ग्वालिनियाँ गाँव से आयी
        अँचरा मे नेह छिपाके लायी.
        
        जनिहें जो सखियाँ दीहें गारी...
        'भोरी ! तोरी काहे को मति मारी' . 
        
        लुकत-छुपत तोरे नगर में आयी 
        भोली भउजाई से लड़िके आयी.

        प्रेम समंदर भरिके लायी 
        अब तुम राखौ लाज कन्हायी. 
           

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

बूजो


Posted by Picasa मेरा नाम बूजो है. अभी-अभी बड़ी मम्मी के कमरे में शू-शू करके आया हूँ ......डाँट लगना पक्का है ...बताना  मत कि मैं यहाँ छिपा हूँ.

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

विद्या, शिक्षा और संस्कार.



मेरा पुत्र वर्त्तमान शिक्षा का विरोधी है ...वह ऐसी शिक्षा को व्यर्थ मानता है जो शैक्षणिक उपाधिधारी को मनुष्य नहीं बना पाती.
पटना वाले "जूली मटुक नाथ चौधरी" को आज की औपचारिक शिक्षा में कई कमियाँ दिखाई देती हैं ....उनके अनुसार वर्त्तमान शिक्षा हमें वैचारिक पाखण्ड की ओर ले जा रही है. वे भागलपुर में अपने तरीके का एक विद्यालय प्रारम्भ करने जा रहे हैं जहाँ ऐसी शिक्षा देने का प्रयास किया जाएगा जो विद्यार्थी को वैचारिक पाखण्ड से मुक्त कर सके.  


विद्या वही है जो हमें अन्धकार से मुक्त कर प्रकाश में लाकर खडा कर दे.
शिक्षा वह है जिससे हम कुछ नया सीख सकें ......कुछ ऐसा नया जो सर्वजन हिताय हो .....उत्कृष्टता की ओर आगे बढ़ने में सहाय हो.
और संस्कार वह है जो हमारे आचरण को परिमार्जित कर हमें निर्मल और हमारे आचरण को अनुकरणीय बना सके.


विद्या, शिक्षा और संस्कार....हमारी क्षमताओं के विस्तार और परिमार्जन के लिए आवश्यक हैं. पर तीनो का संयोग दुर्लभ है. इस दुर्लभता के कारण हम स्वयं में उलझते जा रहे हैं......
.........हम उलझ रहे हैं तो समाज भी उलझ  रहा है.
संयोग की यह दुर्लभता क्यों है ?......कैसे सुलभ बनाया जा सके इसे ?


मनुष्य विविधताओं का पुतला है . 
एक ही व्यक्ति में कई विविधताएं ....और समाज में तो न जाने कितनी विविधताएं ...
सभी की अलग-अलग क्षमताएं ......अलग-अलग सीमाएं ......सुसंयोग की दुर्लभता स्वाभाविक है. 


तो वर्गीकरण करना होगा. पात्रता का निर्धारण करना होगा. सुपात्र को अवसर की सुलभता और कुपात्र का परित्याग आवश्यक करना होगा.
विद्या के लिए स्वयं तप करना होगा.....शिक्षा के लिए सुपात्र होना होगा ......और संस्कार के लिए विनम्र होना होगा.


आज समाज में इन तीनों का अभाव दिखाई दे रहा है. तथाकथित उच्च उपाधिधारी लोग भी शिक्षित नहीं हैं ...लेश भी शिक्षित नहीं हैं. शिक्षित होते तो भारतीय सेवा के कई अधिकारी अपने अधीनस्थ अधिकारियों को अभद्र गालियाँ नहीं देते. मैं स्वयं कलेक्टर्स की अभद्रताओं का कई बार शिकार हुआ हूँ. 
कई बार उच्च-शिक्षित लोग भी विनम्र नहीं होते ......प्रत्युत कई बार तो वे और भी उद्दंड और अहंकारी हो जाते हैं. ज्ञान का मार्ग ऐसे लोगों के लिए बंद हो जाता है. इनके पास केवल सूचनाओं का बोझ होता है. उन्हें गर्व है अपने इस बोझ पर.
उनका 'गर्व' देश के दुर्भाग्य के बड़े स्रोतों में से एक है. 
लोग जिन्हें पढ़ा-लिखा कहते हैं मैं उन्हें उपाधिधारी कहता हूँ. वे लिख सकते हैं ..पढ़ सकते हैं ....अपनी उपाधि को ढोने का गर्व कर सकते हैं ...पर उनमे से अधिकांश लोग मनुष्य नहीं हो पाते. उपाधिधारी और  मनुष्य के बीच का यह अंतर समझना होगा. 
उपाधिधारी यदि मनुष्य भी होते तो क्या भ्रष्ट आचरण पर अंकुश नहीं लग पाता ?
रही बात संस्कार की, तो अब इसकी परिभाषाएं बदल गयी हैं. जीवन का सम्पूर्ण परिदृश्य बदल गया है....मान्यताएं बदल गयी हैं ...लक्ष्य बदल गए हैं ...... विश्व की सभ्यताएं आपस में बात कर रही हैं. एक-दूसरे को अपनी बातों से प्रभावित कर रही हैं ...लोगों के संस्कार बदल रहे हैं ....
वैज्ञानिक तकनीकों से निर्मित हुयी भूमंडलीकरण की सुलभता के परिणामस्वरूप विश्व की सभ्यताएं एक-दूसरे को प्रभावित कर रही हैं. 


सभ्यताएं एक-दूसरे को प्रभावित कर रही हैं .....क्योंकि उनमें एक-दूसरे के प्रति नवीनता का आकर्षण है और अपनी सभ्यता के प्रति अनास्था का विकर्षण है........
यह अनास्था का युग है......असंतुष्टि का युग है ......अधिकारों  के अपहरण का युग है.......शक्ति के अहम् का युग है .....
संवेदना और सहनशीलता लुप्त होती जा रही है . सखाभाव का स्थान शत्रुभाव ने ले लिया है....चारो ओर शत्रुता निर्मित हो रही है. विमर्श और मित्रता का कहीं कोई स्थान नहीं ...प्रेम का कहीं कोई स्थान नहीं. 
प्रेम का यदि कहीं कोई स्थान है भी तो बस इतना ही कि हम प्रेम और सम्मान की वर्षा चाहते हैं ...केवल स्वयं के ऊपर .........इस वर्षा की एक बूँद भी दूसरे को देना नहीं चाहते. 
जो हम अपने लिए चाहते हैं वही दूसरे को देना नहीं चाहते इसीलिये देश में कबीले बन रहे हैं ....राज्य में कबीले बन रहे हैं ....नगर में कबीले बन रहे हैं.....ऑफिस में कबीले बन रहे हैं.......वैज्ञानिकों, चिंतकों, साहित्यकारों, ब्लोगर्स .....सभी के गुटों में कबीले बन रहे हैं. पूरे देश में कबीला तंत्र स्थापित होता जा रहा है.  
एक कबीला दूसरे कबीले को नीचा दिखाने में अपनी सारी शक्ति नष्ट कर रहा है ........उसके लिए यही पुरुषत्व है ...........राष्ट्र प्रेम है. वह देश प्रेम की बात करता है पर देश के लोगों को दुश्मन मानता है......उसके राष्ट्र प्रेम की अवधारणा विचित्र है ..... 


इस कबीला संस्कृति को देखकर बिल्ली निरंकुश हो चुकी है क्योंकि उसके पास जयचंदों द्वारा प्रदत्त गुप्तशक्ति है ........क्योंकि उसके पास चाटुकारों द्वारा थोपी हुयी प्रतिभा है.......क्योंकि हमारे अन्दर बिल्ली के प्रति एक अनावश्यक प्रेम का आकर्षण है...आदर का भाव है .....
कुछ लोग बिल्ली के गले में घंटी बांधना चाहते हैं ......बांधने का प्रयास कर रहे हैं ......शक्तिशाली बिल्ली शेरनी बनकर उनपर टूट पड़ती है...उन्हें झिंझोड़ डालती है. लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं. कबीले सशक्त हैं और बिल्ली मायावी है........................और यह भारतीय समाज का दुर्भाग्य है.


..........और यह दुर्भाग्य बना रहेगा ....तब तक बना रहेगा जब तक कि हम अपने चिंतन के स्तर पर सभ्य नहीं हो जाते ....विद्या, शिक्षा और संस्कार के सुयोग को पुनः सुस्थापित नहीं कर लेते. 
हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी. अपने देश की प्राचीन मान्यताओं को खोजकर बाहर निकलना होगा ....उन्हें झाड़-पोंछकर फिर से सजाना होगा. नारी शक्ति को उसका सम्मान वापस देना होगा ......और शत्रु को भी मित्र बना सकने की क्षमता उत्पन्न करनी होगी. 


                      सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः .....
                                     तमसोमा ज्योतिर्गमय......     
       

   






  



रविवार, 16 अक्तूबर 2011

महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग ..

 आज की पोस्ट वस्तुतः एक टिप्पणी है जो "प्रवक्ता" पर शंकर शरण के प्रकाशित एक आलेख - "महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग .." पर दी गयी है . टिप्पणी आप सबके वैचारिक मंथन हेतु प्रस्तुत है. इस 'टिप्पण्यात्मक पोस्ट' पर आपकी टिप्पणियों का स्वागत है .....न चाहते हुए भी विकल्प को आज खोलना पड़ रहा है. लोग अन्यथा न लें अगली पोस्ट में फिर बंद कर दूंगा.   

भारत एक धार्मिक-आध्यात्मिक देश रहा है, जहाँ किसी चमत्कारी या अवतारी शक्ति में जनमानस को संगठित करने की स्वाभाविक शक्ति निहित रही है. भारतीय जनमानस की इस दुर्बल मानसिकता का लाभ भारतीय अवसरवादियों ने सदा उठाया है. स्वतंत्रता आन्दोलन के समय भी दुर्बल होती कांग्रेस के भविष्य के प्रति स्वयं गांधी भी चिंतित थे ..अंततः उन्हें यह घोषणा करनी पडी कि आज़ादी के बाद कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए. किन्तु स्वतंतत्र भारत के अवसरवादी नेताओं को ऐसा करना अपने भविष्य पर खतरे को आमंत्रित करना लगा जो उन्हें किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं था. अपनी साख खोती कांग्रेस को किसी चमत्कारी व्यक्तित्व के रूप में गांधी और उसके बाद नेहरू (और अब सोनिया ) की सख्त आवश्यकता थी. समय की मांग के अनुरूप अवसरवादी लोगों ने चमत्कारी व्यक्तित्व गढ़े.....यह परम्परा आज भी कायम है. गांधी की ह्त्या ने उन्हें तत्कालीन विवादों से ऊपर उठाकर अनायास ही महान या अवतारी व्यक्ति की श्रेणी में लाकर खडा कर दिया. गांधी यदि स्वाभाविक मौत मरते तो शायद कांग्रेस उनकी ऐसी छवि इतनी आसानी से नहीं बना पाती. कांग्रेस को नाथूराम का कृतज्ञ होना चाहिए जिसने उनका अवसरवादी लक्ष्य आसान कर दिया. 

गांधी के काम संबंधी प्रयोग अनोखे रहे हैं. चूंकि वे महान थे इसलिए उनका सब कुछ महान था...१७ वर्ष की कुमारी कन्या, जिसे हम भारतीय 'शक्ति' का अवतार मानकर पूजते रहने के अभ्यस्त हैं, को निर्वस्त्र हो कर अपने साथ सोने के लिए तैयार कर लेना भी महान था, बकरी पालना और उसे अंगूर खिलाना भी महान था....अपने पुत्रों को औपचारिक शिक्षा से वंचित किये जाने का निर्णय थोपना भी महान था...उनके महान कार्यों की सूची अनंत है. दुःख यही है कि उनके पुत्र उनकी इस महानता को समझ नहीं पाए......और उनकी पारिवारिक तानाशाही में छिपे अहिंसा के तत्व को अपने जीवन में शामिल नहीं कर पाए.

जब हम ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोगों की बात करते हैं तो एक आकर्षक लोक में अनायास ही पहुँच जाते हैं. प्रयोग का उद्देश्य, सिद्धांत, उपकरण, विधि, विश्लेषण और फिर उसका परिणाम सब कुछ किसी भी अनुसंधानकर्ता के लिए परीलोक की सैर जैसा लगने लगता है. तब प्रयोगकर्ता के लिए कितना आकर्षक रहा होगा यह सब ....सहज अनुमान लगाया जा सकता है.

हमारे देश में ब्रह्मचर्य के लिए साधना की गयी है पर कभी इस तरह के प्रयोग नहीं किये गए जिसमें उपकरणों के रूप में जीवित मनुष्य का उपयोग किया जाय.  उपकरण को प्रयोगकर्त्ता की आवश्यकता के अनुरूप स्तेमाल होना होता है, उसका अपना चैतन्य अस्तित्व नहीं रह जाता.....साधन के रूप में उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती ....वह मात्र साधन भर होता है. 

यह कहा जा सकता है कि इस प्रयोग में साधन भी चूंकि जीवित प्राणी है अतः यह प्रयोग दोनों पक्षों द्वारा दोनों पक्षों के लिए है. बचाव में एक अनुमान यह भी किया जा सकता है कि गांधी प्रयोगकर्त्ता होकर साधन के रूप में कुमारी लड़कियों का और साथ ही कुमारी लड़कियाँ प्रयोगकर्त्ता होकर साधन के रूप में गांधी का स्तेमाल करती थीं. दोनों ओर से एक दूसरे पर प्रयोग चलते रहे होंगे . पर एक मौलिक बात यह है कि हर प्रयोग सफल हो यह आवश्यक नहीं....हर प्रयोगकर्ता अपने लक्ष्य तक पहुंचे यह भी आवश्यक नहीं. गांधी वय और वैचारिक रूप से लड़कियों की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ एवं अनुभवी थे.....हो सकता है कि गांधी अपने प्रयोगों में सफल रहे हों पर उन लड़कियों का क्या जो इतनी अनुभवी नहीं थीं ? क्या लड़कियाँ भी ब्रह्मचर्य के इस प्रयोग में सफल रही होंगी ? यह प्रश्न इसलिए उठना स्वाभाविक है क्योंकि यह अनोखा प्रयोग केवल दैहिक स्तर पर ही नहीं अपितु मानसिक स्तर पर भी अपने स्वाभाविक एवं अनिवार्य परिणाम देने वाला था. यदि गांधी को एक अवतारी पुरुष मान लिया जाय तो उनके लिए यह सब "लीला" होने के कारण साधारण सी बात रही होगी  ....वे अपने प्रयोग में शत-प्रतिशत सफल भी हुए होंगे पर लड़कियाँ तो निश्चित ही अवतारी नहीं थीं ...इन प्रयोगों में लड़कियों के मनो-दैहिक परिणामों का आकलन किसने किया ? यदि नहीं किया तो क्यों नहीं किया ? इस दृष्टि से यह एक अत्यंत क्रूर प्रयोग कहा जा सकता है और किसी भी सभ्य समाज में इस प्रकार के प्रयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. कोई भी प्रयोग तब किया जाता है जब परिणाम सुनिश्चित न हो.....अवधारणा के प्रति शंका हो. निश्चित ही गांधी को अपने ब्रह्मचर्य के प्रति शंका थी जिसकी पुष्टि के लिए ऐसे अमानवीय प्रयोग मासूम लड़कियों पर किये गए. गांधी के व्यक्तिगत जीवन के बहुत से कार्य और निर्णय उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं.  




बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

हम खोये हुए रिश्तों को तलाशते हैं .....


कई बार रक्तसम्बन्ध न होते हुए भी हम किसी अन्य से मानस-रक्तसम्बन्ध बना लेते हैं......
.........या बनाने का प्रयास करते हैं .....
.........या तलाश में लगे रहते हैं .......मनुष्य की यह सहज वृत्ति है.
पश्चिमी देशों के विपरीत हम भारतीय दैहिक-रक्तसंबंधों के विकल्प स्वरूप मानसिक-रक्तसंबंधों की तलाश में कई बार तो पूरा जीवन ही बिता देते हैं...... .
पर क्यों ....? रक्त सम्बन्ध ही बनाना इतना आवश्यक क्यों ? सम्बन्ध तो और भी हैं न ! 
हम भारतीय तमाम विवाद के बाद भी रक्तसंबंधों की दृढ़ता और पवित्रता में अपनी आस्था बनाए रखते हैं .....यह एक सुखद और गर्व करने योग्य धारणा है. 
माता-पिता, भाई-बहन, पिता-पुत्र या पिता-पुत्री जैसे अति संवेदनशील और नितांत निजी रिश्तों को भी क्षण भर की भावुकता में बनते और फिर उसी तरह तड़ाक से टूटते देख रहा हूँ. 
हम रिश्ते क्यों बनाते हैं ....? हम रिश्ते क्यों तोड़ते हैं ....?   
हम जीवन भर खोये हुए रिश्तों को क्यों तलाशते हैं .....?
रिश्ते .....जो जाने-अनजाने खो जाया करते हैं .......फिर कभी न मिलने के लिए.......पर मन मानता कहाँ है.....खोजता रहता है .....कभी यहाँ ...कभी वहाँ ...... 
पर रिश्ते खोते ही क्यों हैं कि उन्हें तलाशना पड़े, रिश्तों को खोने की पीड़ा और फिर उन्हें तलाशने की भटकन ...... संयोग और वियोग तो घटनाएँ हैं ......जगत की रीति हैं.  कभी किसी का वश चल पाया है इन पर ? 
नहीं न ! इसीलिये तो ......रिश्ते भी खो जाते हैं..... भीड़ भी तो कितनी है !   


खोये हुए रिश्तों की तलाश....................................................................................................
यह हमारा भटकाव हो सकता है....पर इतना तो तय है कि यह कोई गुनाह नहीं है. .......बेशक ! गुनाह नहीं है ....फिर इस तलाश में इतना विवाद क्यों ?
.......इस तलाश में कभी कुछ हाथ लगा भी तो .....आवश्यक नहीं कि अभीष्ट ही मिला हो. एक छलावा भी तो हो सकता है ...बल्कि उसी की संभावना अधिक रहती है. 
छलावा है तो हाथ से फिर फिसल जाएगा .....तड़ित की तरह निमिष भर को चमत्कृत कर सारी आशाएं ख़ाक कर जाएगा. छोड़ जाएगा अपने पीछे पीड़ा की एक और कहानी .......
ऐसी कितनी ही कहानियाँ रोज बनती और....फैलती रहती हैं ........कुछ दिन चर्चा रहती है ...फिर एक खामोशी पसर जाती है ...........कुछ दिन अवसाद ...और फिर रिश्तों की एक और तलाश .......
तलाश ...और फिर तलाश ......कभी तो अंतहीन ...और कभी विराम भी !
यह विराम निराशा का परिणाम नहीं .......संसार की निस्सारता के ज्ञान का परिणाम है.


एक तीसरी स्थिति और भी है .....हताशा की स्थिति ......अब यदि हम तामसिक वृत्ति वाले हैं तो यह हताशा हमें अवसाद की ओर ले जायेगी. किन्तु यदि हमारी वृत्ति राजसिक है तो यह हताशा हमें एक और नयी विकृति की और ले जाती है ......परपीड़ानन्द की ओर  ...
परपीड़ानंदी होकर हम रिश्ते बनाते हैं ....फिर उनमें आनंद खोजते हैं ......उन्हें पीड़ा देकर....
पीड़ा में आनंद खोजना वृत्ति नहीं विकृति है. इस विकृति से बचना है तो हताशा से बचना होगा. आशा का दीप जलाए रखना होगा. 
हाँ ! ध्यान रहे, यदि अभी वैराग्य नहीं हुआ है तो प्रेम की तलाश जारी रहनी चाहिए .........
प्रेम की तलाश ....रिश्तों से परे भी ..........
रिश्तों का बंधन ही क्यों ..........संबंधों की सीमा ही क्यों ? इन सबसे परे प्राणिमात्र में प्रेम की तलाश करके एक बार देखो तो सही ........प्रेम का विस्तृत सागर है यहाँ .........


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः .......            

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

न्यायालय की दृष्टि में मानसिक रोगी के कृत्य क्रूरता की श्रेणी में ....



३ अक्टूबर, २०११ के दैनिक भास्कर के अनुसार भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब तथा हरियाणा के उच्च न्यायालय द्वारा किये गए एक निर्णय को निरस्त करते हुए याचिकाकर्ता पंकज महाजन को हिन्दू विधि की धारा १३ के अंतर्गत शिजोफ्रेनिया से ग्रस्त अपनी पत्नी से विवाह विच्छेद की अनुमति प्राप्त करने की याचिका को उचित ठहराया है.
माननीय न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए समाज के लिए एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित हो गया है. न्यायालय के अनुसार- मानसिक रोग से ग्रस्त कोई स्पाउज  यदि क्रूरता करता है तो विवाह विच्छेद की पात्रता निर्मित होती है.
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या किसी मानसिक रोगी के पीड़ादायी कृत्य को क्रूरता की श्रेणी में रखा जाना उचित है ? हम क्रूरता किसे कहेंगे ? जो व्यक्ति स्वयं अपने लिए भी उचित-अनुचित का निर्णय करने में समर्थ व सक्षम न हो क्या उसके विवेकहीन कृत्य क्रूरता की श्रेणी में रखे जाने चाहिए ? 
हम तो यही समझते हैं कि जानबूझ कर किसी को पीड़ा पहुंचाने के कृत्य को ही क्रूरता कहा जा सकता है. अन्यथा ऑपरेशन कक्ष में अपने रोगी को उपचार की प्रक्रिया के अनंतर शल्य चिकित्सक द्वारा दी जाने वाली पीड़ा भी क्रूरता की श्रेणी में आ जायेगी. 
मानसिक रोगी के विवाह-विच्छेद की पात्रता पर हम विचार नहीं कर रहे हैं. हम उसके विवेकहीन कृत्य को क्रूर माने जाने की मान्यता पर विचार कर रहे हैं . 
अब तलाक के बाद की स्थिति पर विचार करते हैं. किसी तलाकशुदा मानसिक रोगी के जीवन संचालन का भार किस पर होगा ? तलाक के बाद पति तो उत्तरदायित्व से मुक्त है. मानसिक रोगी स्वयं सक्षम नहीं है. तब पिता ही एकमात्र स्वाभाविक ज़िम्मेदार व्यक्ति के रूप में सामने आता है. एक अंतिम संभावना यह भी है कि उसे सड़क पर छोड़ दिया जाय .....यूं ही ...भटकने के लिए ...या फिर आत्म ह्त्या कर लेने के लिए ( शिज़ोफ्रेनिक में अन्यों की अपेक्षा आत्महत्या की ६० गुना अधिक प्रवृत्ति होती है). किन्तु इन सबसे क्या समस्या का समाधान हो गया ? क्या अब वह तथाकथित क्रूरता के आरोप या कृत्य से मुक्त है ? 
इस निर्णय में वैवाहिक सफलता के एकमात्र पक्ष का ध्यान रखा गया है ...मानवीय पक्ष पूरी तरह उपेक्षित हो गया है. आज, जब कि शिजोफ्रेनिया के उपचार का प्रबंध संभव है .......तब भी इस संभावना पर विचार न करते हुए किया गया निर्णय पुनर्विचार की सम्भावनाओं के द्वार अनावृत रखता है. 


और एक सच यह भी -


Nobel prize-winning mathematician John Forbes Nash Jr. struggled with schizophrenia. His discoveries are well known and highly regarded by economists and mathematicians. Nash became more widely famous following the publication of a biography of Sylvia Nasar, A Beautiful Mind, and later, an Oscar-winning movie of the same name staring Russel Crowe.   


उपेक्षा का नहीं, प्रेम और सहानुभूति का पात्र है शिज़ोफ्रेनिया का रोगी.

शिजोफ्रेनिया पर एक लेख यहाँ भी है .........


http://kaushalendra-theancientscienceoflife.blogspot.com/2011/10/blog-post.html

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

बिखरता समाज ...सिमटती संवेदनाएं ....

   स मालिकों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा, समय के कृत्रिम अभाव, मदिरा सेवन कर वाहन चालन, और यातायात नियमों की उपेक्षा आदि कारणों से जगदलपुर-रायपुर राष्ट्रीय राजमार्ग दुर्घटनाओं का पर्याय बन गया है. कदाचित ही कोई दिन ऐसा होता हो जब इस मार्ग पर कोई दुर्घटना न होती हो. 
     पिछले वर्ष रायपुर से जगदलपुर आते समय रात्रि में एक स्थान पर मात्र तीन किलोमीटर की दूरी में चार दुर्घटनाओं को देख और बारम्बार कहने के बाद भी टैक्सी चालक द्वारा टैक्सी न रोकने से मन दुखी हो गया था. मेरे यह कहने पर कि शायद इनमें से हम किसी की जान बचा सकें, चालक का तर्क था कि हम पुलिस और अदालत के चक्कर में क्यों पड़ें ? जहाँ भी सामाजिक न्याय के सरोकार की बात आती है,  हमारी सोच ऐसी ही होती जा रही है.....हम क्यों किसी चक्कर में पड़ें ? 
      निरंकुश होते जा रहे अपराधों की श्रृंखलाओं में भी हमारी यह आत्मघाती प्रवृत्ति कम उत्तरदायी नहीं है. यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर लोग न्यायिक प्रक्रियाओं से दूर क्यों भागना चाहते हैं ? क्या इसे इतना सरल नहीं बनाया जा सकता कि लोग स्वेछा से इसमें अपनी आवश्यक सहभागिता सुनिश्चित करना प्रारम्भ करें ?
    इस शनिवार की रात मैं जिस बस से जगदलपुर जा रहा था वह मार्ग में कोंडागांव के पास एक पेड़ से बुरी तरह टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गयी. बस पेड़ से टकराकर एक ओर झुककर जमीन से लग गयी जबकि दूसरी ओर के हिस्से का दरवाजा इस तरह टूट कर पिचक गया कि बाहर निकलने की रास्ता ही बंद हो गया. 
किसी तरह सभी यात्री बाहर आये. किसी ने मुझे संबोधित किया " डॉक्टर साहब आपको कितनी लगी ? " यह सुनकर एक लड़की मेरे पास आयी -" डॉक्टर अंकल देखिये, मेरा चेहरा खराब तो नहीं हो जाएगा ?" मैंने देखा- उसे माथे पर कंट्यूजन हुआ था. उसे हिम्मत बंधाई कि सामान्य है, ठीक हो जाएगा. 
    माँ को सूचित करने के लिए उसने मेरा मोबाइल माँगा. दुर्घटना की बात सुनकर शायद माँ रोई होगी इसलिए लड़की भी, जो कि अभी तक केवल डरी हुयी थी अब बुरी तरह रोने लगी. मैंने उसे फिर हिम्मत बंधाई. मेरा मोबाइल उसी के पास था, उसने कहा कि मैं उसके घर वालों को लोकेशन की जानकारी दे दूँ ताकि घर से कोई उसे लेने के लिए आ सके. इस बीच लड़की के घर वालों ने लड़की की चोट के बारे में मुझसे जानकारी माँगी. मैंने आश्वस्त किया कि मैं डॉक्टर हूँ और चिंता की कोई बात नहीं है. पर इस बीच उसके घर के किसी सदस्य ने एक बार भी यह नहीं  पूछा कि मुझे कितनी चोट लगी. जबकि सामने की एक लोहे की बार से टकराने के कारण मेरे गले में लगी अंदरूनी चोट के कारण मुझे बोलने में काफी कष्ट हो रहा था. 
     अन्धेरा बढ़ता जा रहा था ...एम्बुलेंस आ चुकी थी. घायलों को अस्पताल ले जाया गया. शेष लोग किसी वाहन की तलाश में सड़क के किनारे अपनी-अपनी सुविधा से खड़े हो गए. 
    जंगल की खामोशी वातावरण को और भी डरावना बना रही थी. उधर अँधेरे के साथ-साथ लड़की की चिंता बढ़ती जा रही थी. मेरे यह पूछने पर कि  क्या हम एक ओर को खड़े हो जाएँ, वह एक ओर को चल दी. मुझे उसका सामान उठाकरउसके पीछे-पीछे चलना पड़ा .
    हम सड़क के किनारे खड़े हो गए. इस बीच दो वाहन आये भी पर लड़की जाने के लिए तैयार नहीं हुयी. वह अपने चाचा की प्रतीक्षा कर रही थी. इस अँधेरे में और ऐसे माहौल में लड़की को अकेली छोड़ना मुझे उचित नहीं लगा. 
    लड़की थोड़ी -थोड़ी देर में अपनी माँ की याद करके रोने लगती थी. मैंने उसका ध्यान बटाने के लिए बात   करना शुरू  किया. पता चला वह रायपुर में एम.बी.ए . के लिए कोचिंग कर रही है. और जगदलपुर की सनसिटी में ही उसके एक चाचा का भी घर है.  
      इस बीच लड़की ने कई बार चेहरे के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की. वह आश्वस्त होना चाहती थी कि चोट का दाग बुरा नहीं लगेगा  . 
      थोड़ी देर में उसके कोंडागांव वाले चाचा जी गाड़ी ले कर आ गए. गाड़ी की रोशनी में उन्होंने हमें देख लिया था. वे गाड़ी से उतरे .....बगल में खड़ी लड़की के कंधे पर हाथ रखा और उसे ले चले. मैं कार तक उसे छोड़ने गया. चाचा जी ने उस व्यक्ति से बात करना कतई आवश्यक नहीं समझा जिससे अभी कुछ देर पहले वे फोन पर लोकेशन जानने  का प्रयास कर रहे थे . मैंने ही अपनी ओर से मंगलानी जी  (लड़की ने यही  उपनाम  बताया  था ) को चोट के बारे कुछ इन्सट्रकशन दिए. पर शायद उन्हें इसमें भी बिलकुल रूचि नहीं थी. वह जबरन, मेरा एक पक्षीय वक्तव्य रहा. 
गाड़ी में बैठते-बैठते मंगलानी जी ने पूछा -"आपको कहाँ  जाना  है ?" 
मैंने कहा  -"जगदलपुर" 
उन्होंने कहा -"अच्छा " 
      गाड़ी फुर्र से उड़ गयी. अँधेरे से भयभीत और चेहरे के लिए चिंतित लड़की को अब मेरी आवश्यकता नहीं थी. उसने या उसके चाचा ने औपचारिकतावश ही सही पर चलते समय एक शब्द भी कहना उचित नहीं समझा. 
       अब मुझे यह समझने में सरलता हो रही थी कि लोग क्यों दूसरों की सहायत्ता के समय इतने असंवेदनशील हो जाया करते हैं. 
     मुझे एक घंटे बाद जगदलपुर के लिए कोई वाहन मिल सका . शेष रास्ते भर मैं बिखरते समाज की सिमटती संवेदनाओं और शिक्षा से संस्कार की बढ़ती दूरियों को तलाश करने में लगा रहा.
      
  

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

या तमसा देवी ! मनुष्यभूतेषु पाप रूपेण संस्थिता ......



'शक्ति' एक दिन 
'शिव' से बोली -
शक्तिहीन हो रही स्वयं मैं 
हरते-हरते पाप जगत के
अब और नहीं ढो पाऊँगी मैं 
बोझ 
तुम्हारे पापी जग के.
निश-दिन 
लिप्त रहें पापों में 
मंदिर में भी निर्लज्ज-प्रदर्शन
नंगे-भूखे 
मंदिर के बाहर 
स्वर्णाभूषण 
मंदिर को अर्पण  ?

भगवान उवाच -

हे देवी ! 
दुखी बहुत हूँ मैं भी 
देख-देख 
यह मानव-लीला. 
मैं तो सदा भाव का भूखा 
छप्पन भोग न भाते मुझको 
मुझे सदा प्रिय 
रूखा-सूखा. 
जाने क्यों ये कनक घटों में
कनक चढ़ाया करते हैं. 
मुझको 
मेरे भक्तों के संग 
दिन-रात रुलाया करते हैं.

जिस दिन पहला कनक 
चढ़ावे में मंदिर में आया था
'तुझको अर्पित  तेरा' 
-मिथ्या उद्घोष किया था. 
तब से रूठ गया मन मेरा 
मैं हर पल अब रोता हूँ 
पाषाण रह गए भीतर 
मैं, निर्वासित जीवन जीता हूँ 
मैं पीड़ा में...... 
मैं करुणा में ......
और अकिंचन के उर में 
तब भी था 
अब भी हूँ 
मैं सदियों से 
मंदिर के बाहर 
भिक्षु पंक्ति में बैठा हूँ