गुरुवार, 6 जनवरी 2011

नहीं लौटाना चाहता कुछ चीजें

तुम्हारी भेजी टोकरी में रखे फूलों नें 
हंस-हंस कर.....गा-गा कर  
सारा हाल सुना दिया है तुम्हारा .
इन पीले और गुलाबी फूलों नें 
न जाने कितनी बातें की हैं मुझसे .
और ....अपनी खुशबू के साथ-साथ 
तुम्हारी भेजी वह खुशबू भी चुपके से सौंप दी मुझे    
ज़ो तुम्हारे हृदय से अनजाने ही उपजी होगी.
पल भर में कब घुल गयी वह मेरे रक्त में 
मुझे तो पता ही नहीं चला
..............................
पर मैं 
धन्यवाद नहीं दूंगा तुम्हें 
पता है क्यों .........?
मुझे लगता है 
यह औपचारिकता तो उनके लिए है 
ज़ो बढ़ जाना चाहते हैं आगे ..... 
हिसाब चुकता करके
महज़ किसी व्यापार का दस्तूर सा निभाकर.  
तुम्हारी भावनाओं को तौला नहीं जा सकता किसी तराजू  से 
इसलिए  ........
मैं तो ठहरना चाहता हूँ वहीं  ...
और नहीं लौटाना चाहता कुछ चीजें  
.................................वे चीजें  
ज़ो रहनी चाहिए  हमारे ही पास. 
बस ..., धन्यवाद की जगह 
हृदय से कुछ तरंगें सी निकलती हैं विद्युत् की
निकलती ही रहती हैं ..........
और चलती चली जाती हैं अनंत में 
.......................नृत्य करती हुई
दिव्य है वह नृत्य.   
................................और 
जिसकी चीजें रख ली हैं न ! मैंने आपने पास  
मैं अपनी बंद आँखों से 
मुस्कुराते हुए देखता रहता हूँ उसे  
बस ....देखता ही रहता हूँ निरंतर ...
अब तो पलक झपकाने का व्यवधान भी समाप्त हो गया न ! 
  

2 टिप्‍पणियां:

  1. तुम्हारी भेजी टोकरी में रखे फूलों नें
    हंस-हंस कर.....गा-गा कर
    सारा हाल सुना दिया है तुम्हारा .

    दुआ है आपको ऐसी टोकरियाँ मिलती रहे ......

    धन्यवाद नहीं दूंगा तुम्हें
    पता है क्यों .........?
    मुझे लगता है
    यह औपचारिकता तो उनके लिए है
    ज़ो बढ़ जाना चाहते हैं आगे .....
    हिसाब चुकता करके

    सच्च है जहां अपनापन हो ..इन औपचारिकताओं की जरुरत नहीं होती .....
    बहुत अच्छी कविता ....
    दिल से निकले शब्द .....

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  2. आदरणीया "हीर" जी ! मुझे नहीं पता यह कविता है भी या नहीं ...पर इसके शब्दों नें आपके मन को स्पर्श किया.....मुझे ईनाम मिल गया .......और आपकी अनमोल दुआ भी ....हाँ ! टिप्पणी के लिए धन्यवाद तो आपको भी नहीं दूंगा ....नाराज़ मत होइएगा. मैं ऐसा ही हूँ.

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.