रविवार, 26 सितंबर 2010

अस्वीकृत किन्तु ग्राह्य

अन्धकार में पनपते उद्योग की 
एक छोटी सी
किन्तु
सबसे महत्वपूर्ण कड़ी हूँ मैं 

सभ्यता की बाहों में खेलकर 
बढ़ा- पौढ़ा
गहरी-गहरी साँसे लेता
समाज के कचड़े को खाता-निगलता 
चलता-फिरता
एक जीवित उद्योग है यह 
जिसकी 
एक महत्वपूर्ण कड़ी हूँ -------- मैं. 

मेरे सर्वस्व की लागत पर स्थापित 
सबको
शुद्ध लाभ देने वाले
इस उद्योग से
न जाने कितनों का पेट पलता है
मेरे अस्तित्व की आड़ में .

उत्पाद ?
आपके शब्दों में -----आनंद
या भय मिश्रित आनंद का एक झोंका भर
या
शायद एक छलावा भर.

सह उत्पाद ?
इसे बताने से क्या लाभ -------
भला कौन ग्राहक होगा इसका
इसे तो मुझे ही पीना होता है
अंतिम साँसों तक
क्योंकि
आँखों के ठीक नीचे हैं होंठ 
इसलिए जैसे भी हो
पीना तो मुझे ही होगा न !

प्रदूषण ?
हाँ, क्यों नहीं !
उद्योग है तो प्रदूषण भी होगा ही
पर इससे किसी को क्या -----
कि अपसंस्कृति  का विषैला प्रदूषण
कितनों का जीवन तबाह कर देगा.
आप तो बस, 
यदि ग्राहक हैं ------
तो -------जो लेने आये हैं
लीजिये ----संतुष्ट होइए ------और ----
अपने घर जाइए.

उपभोक्ता ?
हूँ ---ऊँ ----ऊँ -----ऊँ ------
शायद आपको छोड़ कर 
शेष सभी
आम भी ----ख़ास भी ----

भविष्य ?
सभ्यता के उत्कर्ष के साथ-साथ ----
पल्लवित-पुष्पित होता रहेगा .--------
समाज की अंतिम साँसों तक
बिना किसी शर्म के .

अंतिम टिप्पणी ?
निंदा करते हैं सब इस उद्योग की
फिर भी ----
बनाए रखना चाहते हैं सब.
सारी निंदाओं के बाद भी ----
कोई बंद नहीं करना चाहता इसे
कोई भी नहीं.
बंद कर भी नहीं सकते
बहुतों की सहभागिता जो है.
बस,
यूँ समझ लीजिये
कि मैं -----अपना शरीर बेचती हूँ
और 
लोग ------अपनी आत्मा.
आपने ठीक समझा
मैं -----गणिका हूँ ----------
एक वर्ज़ना ----
सम्मानहीन  ----
अस्वीकृत ------
किन्तु ग्राह्य.




अस्वीकृत किन्तु ग्राह्य

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.